सर्वोच्च न्यायालय ने कैलाश और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (2011) प्रकरण में स्पष्ट कहा है कि इस देश के असली वारिस यहां के आदिवासी हैं, जिन्हें अतीत में बाहरी घुसपैठियों ने ‘राक्षस’ वगैरह कह कर मारा और दुर्गम जंगलों में रहने को विवश किया। उन्हीं बाहरी आक्रांताओं के वंशजों द्वारा आदिवासियों की जमीन और उनके द्वारा सुरक्षित प्राकृतिक संपदा की लूट मचा कर उन्हें उत्पीड़ित किया जा रहा है। न्यायालय के शब्द हैं: ‘आदिवासियों के साथ किया गया अन्याय हमारे इतिहास का शर्मनाक अध्याय है।’  आदिवासी समाज की अस्मिता और उत्थान के लिए किए गए आरक्षण जैसे विशेष प्रावधानों का मुद्दा सीधे रूप से आदिवासी अस्मिता, स्वायत्तता, आत्मसम्मान, संस्कृति और विकास से संबंध रखता है। इस परिप्रेक्ष्य में जब स्वायत्तता की बात की जाती है तो यह राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति सभी स्तरों पर प्रासंगिक दिखाई देगी। आदिवासी समाज बहुत लंबे समय तक अपनी ही दुनिया में स्वायत्त और स्वावलंबी जीवन जीता रहा, उसके पीछे अस्मिता और आत्मसम्मान की समृद्ध परंपरा रही है। इस स्वायत्तता के साथ आदिवासी बहुत मुश्किल से समझौता कर रहे हैं, चाहे वह उनके लिए लाभकारी ही क्यों न हो। इसकी वजह दीर्घकालीन मानसिकता होती है, जिसमें परिवर्तन बाहर से संभव नहीं होगा, इसलिए सकारात्मक परिवर्तन के लिए उनकी सहमति लेनी होगी। इस सहमति के बिना परिवर्तन मानसिक तनाव को जन्म देगा, जो उस समाज के लिए सदा पीड़ा का कारण बना रहेगा और उसके विकास, अस्मिता और मौलिक मानवाधिकारों के संरक्षण में बाधा उत्पन्न करेगा। राजनीतिक स्वायत्तता को लोकतंत्र के विकसित पंचायती राज से जोड़ कर देखने की प्रक्रिया कई अंचलों में कारगर साबित हुई है, जहां परंपरा और आधुनिक संस्थाओं का तालमेल संभव हो सका।

जंगलों पर आधारित आर्थिक जीवन को प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने बुरी तरह प्रभावित किया है। नतीजतन आदिवासी जीवन भी प्रभावित हुआ और पारिस्थितिकी संतुलन बुरी तरह बिगड़ा। भारत की वन नीति और संवैधानिक प्रावधान इसकी छूट नहीं देते, लेकिन चीजों को तोड़-मरोड़ कर सब कुछ किया जाना संभव हो जाता है। सामाजिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है, जो आदिवासी अस्मिता से सीधे-सीधे संबंध रखते हैं।  आदिवासी समाज के लिए शिक्षा का अधिकार अत्यंत मूल्यवान है। इसी पर उनके व्यक्तित्व का विकास, उनकी राष्ट्र निर्माण में भागीदारी और स्वयं आदिवासी समाज का विकास आधारित है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग ने यह स्वीकार किया है कि जब तक शिक्षा के अभाव से पैदा होने वाले आदिवासियों के शोषण को नहीं रोका जाएगा तब तक उनके कल्याण की बात नहीं बन सकती। सरकारी प्रतिवेदन दावा करते हैं कि आदिवासी शिक्षा के लिए स्कूलों, छात्रवृत्ति और अन्य सुविधाओं की कोई कमी नहीं है। यहां प्रश्न इन सुविधाओं के अलावा दृष्टिकोण और शिक्षा के माध्यम का है, जिस पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए।

आदिवासी समाज भारतीय समाज के शेष घटकों की तुलना में शिक्षा और साक्षरता की दृष्टि से सर्वाधिक पिछड़ा है। इसमें कोई शक नहीं कि पंचवर्षीय योजनाओं, वार्षिक बजटों और प्रशासनिक घोषणाओं में आदिवासी समाज के लिए शिक्षा सहित समग्र विकास की चिंताएं अभिव्यक्त हुई हैं और कार्यक्रम भी खूब बने हैं, लेकिन खेद और विडंबना है कि इन सारे प्रयासों का मापदंड केवल बजट, लक्ष्य और उपलब्धि के आंकड़ों को माना गया, जबकि जमीनी हकीकत इस सबका कहीं न कहीं अलग रहा है। शिक्षा की नई राष्ट्रीय नीति वर्ष 1986 में लागू की गई। आदिवासी शिक्षा को लेकर जो प्रावधान इसमें किए गए उनमें आदिवासी क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालयों को प्राथमिकता के आधार पर खोलना, पाठ्य सामग्री आदिवासी भाषा में उपलब्ध कराना, शिक्षित आदिवासी युवकों को अध्ययन कार्य से जोड़ना, आदिवासी क्षेत्रों में आश्रम/ आवासीय विद्यालय खोलना, आदिवासी छात्रों की आवश्यकताओं को देखते हुए बालकों को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाना आदि हैं।

मनुष्य को जितना अपनी मातृभूमि पर गर्व होता है उतना ही अपनी मातृभाषा पर भी होता है। यह गर्व उस इंसान की अस्मिता से जुड़ा होता है, जो सीधा-सीधा सवाल है उसके मौलिक अधिकारों का, जिसकी गारंटी हमारा संविधान देता है। फरवरी 2010 के मध्य में अंडमान में पचासी वर्षीय बोआ सीनियर नामक एक महिला की मृत्यु के साथ दुनिया की ‘बो’ भाषा हमेशा के लिए अस्तित्वहीन हो गई। वह महिला एकमात्र सदस्य थी इस भाषा को बोलने वाली। भाषा है तो शिक्षा है। शिक्षा है तो व्यक्तित्व का निर्माण है। व्यक्तित्व के निर्माण के साथ राष्ट्र का निर्माण जुड़ा हुआ है। इसलिए आदिवासी समाज के सर्वांगीण विकास का प्रश्न अंतत: आदिवासी समुदायों की भाषाओं के संरक्षण और विस्तार से संबंध रखता है। सुनीति कुमार चटर्जी ने आदिवासी भाषाओं के बारे में यह चिंता व्यक्त की है कि अधिकतर भाषाएं धीरे-धीरे मर जाएंगी। आदिवासी भाषा के अस्तित्व का सवाल आदिवासी संस्कृति, परंपरा से जुड़ा हुआ है। तथाकथित विकास या कहें बाहरी दबाव के चलते आदिम जीवन शैली में परिवर्तन अवश्यंभावी है, जिसका प्रभाव संस्कृति, परंपरा और अंतत: भाषाओं पर पड़ना स्वाभाविक है। आदिवासी भाषाओं का संरक्षण तभी संभव होगा जब आदिवासी संस्कृति और परंपरा पर गर्व किया जाए और आदिवासी समाज में जो भी ज्ञान का परंपरागत संचयन है, उसे आदिवासी भाषाओं में लिपिबद्ध कर संकलित किया जाए।

यूनेस्को की वर्ष 2009 की रिपोर्ट में विश्व की कुल छह हजार भाषाओं में से पिछले पचहत्तर वर्षों में दो सौ भाषाओं के लुप्त हो जाने का तथ्य उजागर हुआ है। साथ ही ढाई हजार भाषाओं को खतरे में बताया गया है। इनमें से 196 भाषाएं भारत की हैं, जिनमें अधिकतर आदिवासी भाषाएं हैं। आदिवासी भाषाओं के लुप्त होने का प्रमुख कारण आदिवासी भाषाओं को शिक्षा का माध्यम नहीं बनाना है। दूसरा प्रमुख कारण लिपियों का अभाव है।  भूमंडलीकरण ने आदिवासी समाज की अस्मिता और अधिकारों को किस तरह प्रभावित किया है, यह भी देखने की बात है। अनेक अध्ययनों से निष्कर्ष सामने आए हैं कि नब्बे के दशक में जिस कदर वैश्वीकरण-निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को अंधाधुंध तरीकों से लागू किया, उसकी वजह से गरीबी ने पंद्रह करोड़ लोगों को प्रभावित किया। इस जनसंख्या का एक तिहाई आबादी आदिवासी समाज की रही। आदिवासी दृष्टिकोण से वैश्वीकरण का दुष्प्रभाव अब स्पष्ट रूप से सामने आने लगा है, देशी-विदेशी कंपनियों का इस कदर व्यवस्था पर वर्चस्व कायम होगा, यह शायद किसी ने उम्मीद नहीं की थी।

भारत की वन नीति में स्पष्ट रूप से जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के गांवों को ‘वन्य-ग्राम’ की संज्ञा दी गई है और प्रावधान किए गए हैं कि राजस्व गांवों की तरह सारी सुविधाएं वन्य गांवों को उपलब्ध कराई जाएं, जिनमें शिक्षा, चिकित्सा, विद्युत, संचार, सड़क, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, अनाज भंडार, विकसित कृषि, पशु-चिकित्सालय, बैंक, सहकारी संस्थाएं, छिटपुट वनोत्पाद का उपभोग, बिचौलियों के शोषण से मुक्ति की व्यवस्था आदि शामिल हों। आदिवासी विकास का मुद्दा सीधे रूप में आदिवासी समाज के मानवाधिकारों का मुद्दा है। यह समस्या अत्यंत जटिल रही है और इसकी एकमात्र वजह है कि उनके विकास की बात उनकी जीवनशैली, सांस्कृतिक परंपराओं और मनोदशा को ध्यान में रख कर नहीं की गई है।
आदिवासी समाज की अस्मिता, उसके मौलिक अधिकार, उसका अस्तित्व सुरक्षित रहेगा, तो जंगल सुरक्षित रहेगा। जंगल सुरक्षित रहेगा तो प्रकृति बचेगी। प्रकृति बचेगी तो पृथ्वी और पृथ्वी सही-सलामत है तो उसका आसमान।छ