प्रगतिशील लेखक संगठन इतने पस्त हिम्मत, टूटे-बिखरे और दिग्भ्रमित शायद कभी नहीं थे। आगाज के दिनों में प्रगतिशील आंदोलन की व्यापकता की तुलना भक्ति आंदोलन से की जाती थी। यह तुलना प्रगतिशील आंदोलन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े किसी व्यक्ति ने नहीं, बल्कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने की है। इसलिए विचार करना चाहिए कि प्रगतिशील आंदोलन इतनी जल्दी और इस कदर टूटा हुआ, बिखरा हुआ क्यों है? प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत 1936 से मानी जाती है। 1936 में ही लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन हुआ था। प्रेमचंद ने साहित्य का उद्देश्य शीर्षक निबंध इसी अधिवेशन के लिए लिखा था। प्रेमचंद का यह निबंध हिंदी में प्रगतिशील आंदोलन का प्रेरणा स्रोत बना रहा है। साहित्य का उद्देश्य में प्रेमचंद ने लिखा- ‘हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी।’

प्रेमचंद ने पाया था कि सुंदरता की कसौटी अमीरी और विलासिता के ढंग की है। उन्होंने इसे दृष्टिदोष बताया और दुरुस्त करते हुए वहां सौंदर्य देखने का प्रस्ताव किया जहां अब तक हमारी नजर नहीं गई थी। अमीरी और विलासिता के बरक्स गरीबी और बदहाली में छिपे सौंदर्य को देखने का प्रस्ताव किया। प्रेमचंद ऐसा इसलिए कर सके, क्योंकि उनके लिए साहित्य जीवन की ही अभिव्यक्ति है। इस निबंध के आरंभ में ही साहित्य की परिभाषा करते हुए प्रेमचंद कहते हैं- ‘मेरे विचार से उसकी (साहित्य की) सर्वोत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना है।’ निबंध के अंत में साहित्य की कसौटियों की चर्चा करते हुए वे उसे ही खरा साहित्य मानते हैं, जिसमें जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो। एक तरफ जीवन की आलोचना और दूसरी तरफ जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश। साहित्य की परिभाषा और साहित्य का उद्देश्य इसी के बीच से निकलता है। सच्चाइयों के प्रकाश तक पहुंचने के लिए जीवन की आलोचना बेहद जरूरी है। यहीं पर समाज का दर्पण होने मात्र की भूमिका से साहित्य का उद्देश्य विस्तारित हो जाता है। साहित्य के उद्देश्य का यह विस्तार ही दृष्टिदोष दूर करता और हमारे नजरिए को व्यापक बनाता है। जीवन में आडंबर भी है, पाखंड भी है, रूढ़ि भी है, संकीर्णताएं और कुटिलताएं भी हैं। इन कुहासों के भीतर ही कहीं जीवन की सच्चाई का प्रकाश है। इसलिए जीवन की आलोचना साहित्य का महत्त्वपूर्ण पहलू है। इसके लिए वह आलोचनात्मक विवेक जरूरी है, जो गर्द और कुहासे को भेद कर सच्चाई के प्रकाश तक पहुंच सके।

साहित्य का उद्देश्य निबंध में प्रेमचंद ने लिखा है- साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव न होता तो शायद वह साहित्यकार ही न होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है और बाहर भी। इस कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है- अपनी कल्पना में वह व्यक्ति और समाज को सुख और स्वच्छंदता की जिस अवस्था में देखना चाहता है, वह उसे दिखाई नहीं देती। इसलिए वर्तमान मानसिक और सामाजिक अवस्थाओं से उसका दिल कुढ़ता रहता है। वह इन अप्रिय अवस्थाओं का अंत कर देना चाहता है, जिससे दुनिया में जीने के लिए अधिक अच्छा स्थान हो जाए। प्रेमचंद ने साहित्यकार के स्वभावत: प्रगतिशील होने की व्याख्या इसलिए की, क्योंकि वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ नाम से असहमति जता रहे थे। प्रगतिशील आंदोलन के विरोधियों ने इस वाक्य का भरपूर उपयोग किया। वे इससे प्रगतिशीलों पर प्रहार भी करते रहे और स्वयं को प्रगतिशील मूल्य और आदर्श के रूप में स्थापित भी करते रहे। खेद की बात है कि स्वयं प्रगतिशील आंदोलन और प्रगतिशील लेखक संघों ने इस वाक्य के मर्म को समझने और जीने से इनकार कर दिया। इसलिए राजनीति की मशाल के पीछे चलते हुए वे जीवन की सच्चाई के प्रकाश से दूर होते गए।गालिब कहते हैं- ‘पिनहां था दामे-सख्त करीब आशियान के/ उड़ने न पाए थे कि गिरफ्तार हम हुए।’ आशियाने के पास ही जाल छिपा था। उड़ने के पहले ही हम गिरफ्तार हो गए। इस गिरफ्तारी का नतीजा यह हुआ कि प्रगतिशील लेखक संगठन (और आंदोलन) अपनी जमीन से कटता गया। जीवन की समझ किताबी हो गई। लेखक संघ राजनीतिक दलों से बराबरी के स्तर पर बहस करने की बात तो दूर, सुझाव देने की स्थिति में भी नहीं रह गए।

बहरहाल, रचनाकार का स्वभाव प्रगतिशील होना है, उससे वह जीवन की सच्चाइयों से दो चार होता रहा। पर लेखक संघ और उनके नेता अजब से दिग्भ्रम के शिकार हो गए। उनके पास समाज को देखने-परखने की दृष्टि तो नहीं ही रह गई थी। पर वे जिन गढ़ों और मठों पर काबिज थे, उन्हें बचाने की जद्दोजहद में लगे रहे। मुक्तिबोध की पंक्ति- तोड़ने ही होंगे गढ़ और मठ सब- मंच पर कहने के लिए रह गई। समाज में मौजूद पाखंड की संस्कृति उनका अंतिम शरण्य बनी। पाखंड जब सक्रिय होता है तो प्रतिभा, ज्ञान और वैदुष्य समाज को प्रकाशित करने के बजाय स्वयं को लाभ पहुंचाने लगते हैं। ऐसी स्थिति में प्रतिभा और ज्ञान, छल और कपट के साधन बन जाते हैं। लेखक संघ भी इसी रास्ते पर चल पड़े। विचारों की जिस नींव पर उनकी इमारत खड़ी हुई थी, वे तो नींव में ही रह गए थे। जिन विचारों को बेदरो-दीवार का घर बनना था, वे स्वार्थ सिद्धि के समूहों के नारे मात्र में सिमट कर रह गए। गढ़ों और मठों का उपयोग स्वार्थ सिद्धि के लिए होने लगा। यह बात अयां हो गई। नए भर्ती होने वाले रंगरूट और तेज निकले। उन्हें लगा कि जब मामला लाभ का ही है, तो ढहते हुए गढ़ों और मठों में क्यों रहें। वे ज्यादा चमकदार या मलाईदार केंद्रों की ओर मुखातिब हो लिए।

प्रेमचंद साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहते हैं तो इसका मतलब समझना चाहिए। राजनीति और साहित्य के चरित्र में एक बुनियादी फर्क होता है। राजनीति के बहुत सारे निर्णय रणनीतिक होते हैं। कुछ ऐसे कदम, जो दूरगामी दृष्टि से सही नहीं हो सकते, पर फौरी तौर पर किसी संकट या अवरोध को दूर करने में कारगर हों तो राजनीति उन्हें उठा लेती है। साहित्य के क्षेत्र में ऐसा करना न संभव है और न मुनासिब। राजनीति की मशाल के पीछे चलते हुए साहित्य को ऐसे रणनीतिक कदम उठाने पड़े और अपने स्वधर्म से विचलित होना पड़ा। इन लेखक संगठनों में साहित्य की नजर जीवन सत्य से हट गई। जीवन की सच्चाई को देखने-परखने और उसे बदलने के राजनीतिक तरीके भिन्न होंगे और साहित्यिक तरीके भिन्न- यह विवेक जाता रहा। साहित्य के संगठन साहित्य के मूल उद्देश्यों से भटक गए और अर्थहीन होते चले गए।