संपत्ति की लालसा में मनुष्य ने आधारभूत मानवीय सरोकारों की परवाह करना छोड़ दिया है। निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर में संपत्ति की अवधारणा पूंजी में परिवर्तित हो गई है और पूंजी का वर्चस्व सर्वत्र व्याप्त होता जा रहा है। यहां तक कि लोकतांत्रिक सरकारों को भी पूंजीपति निर्देशित और नियंत्रित करने लगे हैं, चाहे ये सरकारें विकसित देशों की हों, अर्द्ध विकसित या पिछड़े देशों की। भारत की सबसे बड़ी समस्या है गरीबी। यहां का समाजशास्त्र अर्थशास्त्र से बड़ा और महत्त्वपूर्ण है। देश की कुल आबादी का करीब बाईस प्रतिशत हिस्सा सरकारी गरीबी रेखा से नीचे नारकीय जीवन जीने को विवश है। यह कैसा लोक कल्याणकारी राष्ट्र है, जहां अमीरों के ग्राफ का लंबवत उत्थान और गरीबी का समतलीय विस्तार होता जा रहा है। दस प्रतिशत लोगों के पास इतना धन है कि खर्च करने के लिए उन्हें योजना बनानी पड़ती है और दूसरी तरफ नब्बे फीसदी जनता दिन-रात मेहनत करने के बावजूद भौतिक दृष्टि से बहुआयामी समस्याओं से जूझ रही है! जाहिर है, विकास की ये राहें उस तरफ नहीं जातीं, जिस तरफ इंसानियत की मंजिल है।

आदिम युग से वर्तमान वैश्वीकरण के दौर तक निजी संपत्ति की अवधारणा ने पूंजी के वर्चस्व तक की यात्रा की, तो उसने मूलभूत मानवीय सरोकारों को एक तरफ रख कर निजी या निगमीय स्वार्थ को सर्वोपरि रखा। यह उग्र पूंजीवाद मानव जाति और प्राकृतिक तत्त्वों के विरुद्ध होता गया। हम यात्रा के जिस पड़ाव पर पहुंच चुके हैं, वहां से वापस आदिम युग में लौट पाना असंभंव है, लेकिन मनुष्य के पक्ष में जो आदिम सरोकार रहे उन पर ध्यान देना जरूरी है, ताकि पूंजी के वर्चस्व के दुष्प्रभावों से बचा जा सके। इसके लिए हमें उन आदिम समाजों के दर्शन, संस्कृति और जीवन शैली को पहचानना होगा, जो अभी तक प्रकृति और मानवेतर प्राणियों के साथ सह-अस्तित्व का जीवन जीने की परंपरा को बचाए हुए हैं।

जहां तक निजी संपत्ति की अवधारणा का सवाल है, आदिवासियों ने अब भी एक तरह से इसे नकारा है। वनोपज का संकलन, आखेट या कृषि कर्म की गतिविधियां अब भी कई जगह सामूहिक रूप से की जा रही हैं। कहीं जमीन पर निजी स्वामित्व है, तो भी श्रम में सामूहिकता देखी जा सकती है। भौतिक वस्तु संग्रहण की प्रवृत्ति समाज के अन्य घटकों की तुलना में इन लोगों के यहां कम पाई जाती है। जो सहज रूप में मिल गया उसमें संतोष करने का स्वभाव इन लोगों के यहां दिखाई देगा। भौतिक लाभ और स्वार्थ इन लोगों की मानसिकता में नहीं दिखाई देगा। यही वजह है कि ये ईमानदार, सहज और भोले हैं, जिन्हें चतुर लोग ठगते रहे हैं।

भारतीय परिप्रेक्ष में भौतिक दृष्टि से अति पिछड़ी स्थिति में अंडमानीय टापुओं में रहने वाले जारवा और सेंटेनली जैसे आदिवासी समुदाय हैं, जिनके जीवन में झांक कर देखें तो वहां जंगली सूअरों की तादाद काफी है। ये लोग इनका शिकार करते और खाद्य सामग्री के रूप में उपयोग करते हैं। अब भी टापुओं के भीतर जो समूह रहते हैं, उनमें निजी संपत्ति की अवधारणा नहीं है। यहां तक कि झोपड़ीनुमा घर भी नहीं बनाते। जब कोई स्त्री प्रसव के निकट होती है तभी अस्थाई झोपड़ी बनाई जाती है, जिसे प्रसव के कुछ दिनों बाद ध्वस्त कर जला दिया जाता है। वन्य जीवों की तरह ये लोग समूहों में इधर-उधर विचरण करते रहते हैं।

ऐसे लोग भ्रम में हैं जो आसानी से आदिवासियों को आलसी और विकास-विरोधी कह देते हैं। आदिवासी उतना ही कमाने में विश्वास करता है, जितने में उसका गुजारा हो जाए। उसे कमाई का संचय नहीं करना। कल की कल देखी जाएगी। आदिवासी जीवन को जीना चाहता है। वह उसे जीना जानता है। जब भी मौसम, माहौल, मस्ती, मौका मिलता है वह गाता है, वह नाचता है। वनस्पतियों के नवांकुरों को देख कर, फसलों के लहलहाने और पक जाने पर, ऋतुओं की भंगिमाओं के साथ, पर्वोत्सवों के अवसरों पर आदिवासी-जन खुशियां मनाते, नाचते-गाते हैं। वे गम के माहौल को कमतर करना जानते हैं और खुशी के पलों को लंबा करके जिंदगी को जीने में विश्वास करते हैं।

शायद वे आदिकाल से यह जानते हैं कि लालच इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन होता है। धन के पीछे भागने और धन के अकूत संचय के बाद मनुष्य पागल हो जाता है। दंभ और विलासिता माया की ही उपज होती है, जो इंसान को इंसान नहीं रहने देती। आदिवासी जानता है कि कैसे इंसान को जिंदा रखा जा सकता है। इसलिए आदिम समुदायों में अब भी भोलापन, ईमानदारी, सामूहिकता, निस्वार्थता, अव्यावसायिकता, व्यक्तिवाद का नकार, भ्रातृत्व, समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, प्रकृति के साथ तादात्म्य, मानवेतर प्राणियों के साथ सह-अस्तित्व, आदि- एक किस्म की सहज और निर्मल जीवन जीने की कला आदिवासी समाज की परंपरा में देखने को मिलती है।

सवाल संपत्ति के प्रत्यय के नकार का नहीं, बल्कि संपत्ति के मानवीय उपयोग का है, जिसमें संपत्ति बेलगाम पूंजी बन कर मनुष्य पर हावी होने के बजाय उसकी भौतिक सुविधाओं की पूर्ति में सहायक भूमिका में रहे। इसीलिए दर्शन की एक धारा ने संपत्ति के निजीकरण को निरस्त करते हुए उसके ऊपर राज्य के नियंत्रण पर जोर दिया है, ताकि उसका सामाज के हित में सामूहिक उपयोग किया जा सके। अनियंत्रित निजी संपदा अमीरों के वर्चस्व और गरीबों के लिए अभिशाप का कारण बनती है। यह दशा मनुष्य विरोधी होती है।

आदिवासियों के दर्शन में प्राकृतिक तत्त्वों के निजी हित में अंधाधुंध दोहन का तीव्र विरोध है। प्रकृति के साथ एक तादात्म्य इनके जीवन में झलकता है। दिशाहीन भौतिक विकास की दौड़ में हम भूल गए हैं कि अगर पृथ्वी बची रहेगी तभी सबका जीवन सुरक्षित रहेगा, नहीं तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा। यह जो कुछ हो रहा है वह भौतिक विकास का अमानवीय, कू्रर चेहरा है, जिसे खतरनाक रूप पूंजी यानी निजी संपत्ति की लालसा ने दिया है। बहुमुखी पारिस्थितिकीय असंतुलन इसी आंधी दौड़ के कारण बढ़ रहा है। निजी संपत्ति के लालच ने मनुष्य को उग्र स्वार्थ और गलाघोंटू प्रतिस्पर्द्धा की भयंकर चपेट में ले लिया है। जिस भौतिक विकास के मार्ग को मनुष्य ने मुक्ति का मार्ग समझ रखा है वह उसकी भारी भूल है। प्रकृति बार-बार उसे चेतावनी दे रही है। निजी संपत्ति का मोह बहुत सारे मानवीय सरोकारों का ह्रास कर रहा है। उन्नति का मानदंड केवल आर्थिक आय को माना जा रहा है। मनुष्य के विस्थापन की कीमत पर विकास, धन और भुजबल के आधार पर समस्त लोकतांत्रिक प्रक्रिया, अनियंत्रित काले धन की करतूतें, भ्रष्टाचार, अविश्वास, चिंता, भय, आशंका, असुरक्षा, असमंजस, अनिद्रा, अभिनव आधि और व्याधियां, आतंकवाद, राष्ट्रों की संप्रभुताओं पर आक्रमण, क्षेत्रीय अस्मिताओं का नकार, अनेक किस्म के वर्गीय टकराव, साम-दाम-दंड-भेद सब कुछ की क्षम्यता को मिला कर ढेर सारी विकृतियां इस तथाकथित विकसित मानव ने पैदा कर दी हैं।

बहस का विषय यह है कि जिस मानव समाज को निजी संपत्ति की अवधारणा पूंजी के मनुष्य-विरोधी वर्चस्व तक भौतिक विकास के नाम पर लेकर आई, उसके दुष्परिणाम से बचने के लिए निजी संपत्ति की अवधारणा में विश्वास नहीं करने वाले आदिवासियों की प्राकृतिक जीवन शैली को मानव समाज, मानवेतर प्राणी जगत और संपूर्ण पृथ्वी के हित में किस तरह उपयोग में लिया जा सकता है।