यह एक प्रयोगशील फिल्म है और इसे ग्यारह निर्देशकों ने निर्दशित किया है। लेकिन इसमें ग्यारह कहानियां नहीं हैं। बल्कि एक ही कहानी के अलग-अलग हिस्सों को अलग-अलग निर्देशकों ने अपने तरीके से निर्देशित किया है। इस तरह से यह एक नया प्रयोग है। हिंदी में कुछ फिल्में ऐसी बनी हैं जिसमें अलग-अलग कहानियां रही हैं। जैसे ‘दस कहानियां’ या ‘बॉम्बे टाकीज’। लेकिन उनमें कहानियां अलग-अलग थीं और उनके अलग निर्देशक थे। लेकिन ‘एक्स-पास्ट इज प्रेजेंट’ में एक ही कहानी है और ग्यारह निर्देशक उसे अपने दृष्टिकोण से दिखाते हैं। स्वाभाविक है कि दर्शक को कई तरह के झटके मिलते हैं।
अगर किसी तरह की एकसूत्रता है तो ये कि सारी घटनाएं मुख्य किरदार के इर्द-गिर्द घटती हैं। इस मुख्य किरदार का नाम है के और इसे निभाया है रजत कपूर ने। रजत कपूर के युवा दिनों को अंशुमान झा ने निभाया है। फिल्म में फ्लैशबैक का प्रचुर इस्तेमाल है।
के एक फिल्मकार है। उसकी जिंदगी में कई लड़कियां आती हैं। ऐसे ही ग्यारह लड़कियों से उसके संबंध की दास्तान है ‘एक्स-पास्ट इज प्रेजेंट’। फिल्म के नाम में जो ‘एक्स’ शब्द है उसे अंग्रेजी का वह एक्स समझिए जिसका हिंदी अनुवाद पूर्व या भूतपूर्व होता है। यानी फिल्म के की पूर्व प्रेमिकाओं के साथ बीती जिंदगी पर है।
हर प्रेमिका एक जैसी नहीं होती। सो ग्यारह प्रेमिकाओं के साथ के अनुभव भी एक जैसे नहीं हैं। किसी के साथ घोर कामुकता के हैं, किसी के साथ बड़े मांसल हैं और किसी के साथ आध्यात्मिक भी हैं। फिर भी फिल्म का केंद्र कामुकता है। हालांकि राजश्री ओझा के निर्देशित हिस्से में, जिसमें राधिका आप्टे ने मुख्य महिला चरित्र को निभाया है, एक टकराहट है। आज की औरत अपने पति या प्रेमी को छोड़ सकती है और अगर उसे इस सिलसिले में अपना गर्भ गिराना पड़े तो उसके लिए भी नहीं हिचकेगी, ऐसा इस हिस्से का संदेश है। प्रतिम गुप्ता वाला हिस्सा रोमांटिक है।
चूंकि फिल्म में कोई एक दृष्टिकोण नहीं है इसलिए दर्शक कई जगह उलझन का शिकार होता है। कैमरा, प्रकाश व्यवस्था, पार्श्व संगीत से लेकर अभिनय जैसे पहलू एक तार में कसे नहीं हैं। इसलिए कुछ हद तक यह फिल्म चूं-चूं का मुरब्बा भी बन जाती है। बेशक जो फिल्म में अकादमिक रुचि रखते हैं और हर तरह की फिल्मों में दिलचस्पी दिखाते हैं उनके लिए यह फिल्म रोचक है और इस पर गंभीर बहसें भी होंगी। पर फिल्म के सामान्य दर्शक के लिए यह शायद ही रुचिकर हो।