‘सरकार 3’ देखने के बाद दो बातें निश्चित रूप से कही जा सकती हैं। एक तो यह कि राम गोपाल वर्मा अभी भी बहुत अच्छी तो नहीं लेकिन कुछ ठीकठाक-सी फिल्में बना सकते हैं। दूसरा, ऐसा वे सिर्फ अमिताभ बच्चन के साथ काम करते हुए कर सकते हैं, क्योंकि ‘सरकार राज’ के बाद उनकी अलग अलग अभिनेताओं से साथ जो फिल्में आईं वे या तो बेहद साधारण रहीं या पिट गईं। दूसरे शब्दों में अमिताभ के अलावा उनकी फिल्मी दुकान पर कुछ नहीं है। इस बार भी अमिताभ उनके खेवनहार बन के आए हैं और उनके कारण ही इस फिल्म को कुछ दर्शक मिल भी जाएंगे। कह सकते हैं कि राम गोपाल वर्मा के भीतर की आग अब धीरे धीरे बुझ रही है। उनके भीतर यदा कदा जलती हुई लौ दीखती है। ‘सरकार 3’ भी उसी तरह की है।

‘सरकार-3’ की खूबी अमिताभ बच्चन का अभिनय है जिसमें वे अपने संवादों,अपनी नजरों और अपनी हरकतों से चुंबकीय प्रभाव पैदा करते हैं। उनके संवाद बहुत शांत और ठहरी हुई आवाज में हैं जिसके कारण उनकी हर भंगिमा में एक सम्मोहन है। ‘सरकार-3’ में भी उन्होंने उसी सुभाष नागरे की भूमिका निभाई है जो एक तरह से मुबंई का गॉडफादर है और वहां की राजनीति से लेकर अपराध तंत्र पर उसका नियंत्रण है। उसके दो बेटे इस शृंखला की पुरानी फिल्मों में मारे जा चुके हैं। ‘सरकार-3’ में नागरे का पोता, उसके बड़े बेटे विष्णु का बेटा, शिवाजी (अमित साध) अपने दादा के घर लौटता है। विष्णु की हत्या उसके छोटे भाई शंकर ने कर दी थी ‘सरकार’ में और शंकर भी ‘सरकार राज’ में मारा जा चुका है। अब ‘सरकार-3’ सुभाष नागरे और शिवाजी के रिश्तों की कहानी है। शिवाजी के आने से नागरे का पुराना वफादार गोकुल (रोनित रॉय) खुश नहीं है। शिवाजी की अपनी एक प्रेमिका (यामी गौतम) है जो नागरे से अपने पिता की हत्या का बदलना लेना चाहती है। कई मसलों को लेकर शिवाजी और गोकुल के बीच शीत युद्ध शुरू हो जाता है तो आगे चलकर खुल्लमखुल्ला लड़ाई में बदलता है। नागरे के खिलाफ देशपांडे (मनोज वाजपेयी) नाम का एक नेता खड़ा होता है जिसके पीछे वालिया (जैकी श्रॉफ) जैसे बड़े बिजनेसमैन हैं। वालिया और देशपांडे के साथ गांधी नाम का एक शख्स भी है। तीनों मिलकर नागरे के खिलाफ साजिश रचते हैं। क्या ये साजिश सफल होगी या नागरे अपने पुराने हथकंडे दिखाते हुए फिर से इस खेल में अपने प्रतिद्वंद्वियों के मात देगा?

हालांकि राम गोपाल वर्मा ने कुछ कुछ कोशिश की है कि कहानी को थोड़ा रहस्यपूर्ण बनाएं लेकिन ऐसा होता नहीं है और दर्शक अनुमान कर लेता है कि आगे क्या होनेवाला है और अंत में वही होता है। फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी यह भी है कि नागरे के पोते के रूप में अमित साध का चयन बेहद कमजोर है। यह बात फिल्म में कभी जमती नहीं कि शिवाजी चालाक और उभरता हुआ गैंगस्टर है। यह अमित साध की नहीं वर्मा की विफलता है। वर्मा ने अमिताभ को छोड़कर बाकी किरदारों के चरित्र को ठीक से विकसित करने पर जोर दिया नहीं है। चाहे यामी गौतम हो या जैकी श्रॉफ सब आधे- आधूरे लगते हैं। यामी गौतम खलनायिका हैं या नहीं, इसको समझने में पूरी फिल्म निकल जाती है और जैकी श्रॉफ ने जिस किरदार को निभाया है वह भी ठीक से उभर नहीं पाया है। मनोज वाजपेयी की मां बनी रोहिणी हट्टंगडी शराब के नशे मे डूबी रहती हैं, इससे भी कुछ साफ साफ नहीं उभरता। हां, मनोज ने जिस देशपांडे की भूमिका निभाई है वह कुछ कुछ प्रभावशाली है। पर यह बहुत छोटी भूमिका है।