पता नहीं इस फिल्म के निर्देशक टीनू सुरेश देसाई ने क्यों बयान दिया कि उनकी नई फिल्म रुस्तम’ नानावती-प्रकरण से प्रभावित नहीं है। वास्तविकता यही है कि सन् 1959 में हुए तत्कालीन बॉम्बे (अब मुंबई) में नौसेना के कमांडर नानावती (कावस मानेकशॉ नानावती) ने अपनी पत्नी की हत्या एक अन्य पुरुष से संबंध होने के कारण की थी। तब ये खबर मीडिया की सुखिर्यां थीं। सत्तावन साल बाद फिर से उसी प्रकरण की झलक रुस्तम’ के रूप में देसाई से पेश किया है। पर फर्क है। सिनेमाई आजादी के नाम पे विदेशी नौसेनाई जहाजों की खरीद के मामले को इसमें जोड़ दिया गया है। इस तरह आजकल सैन्य हथियारों या उपकरणो की खरीद संबंधी आ रही घपलों की खबर को इसमें मिलाने से फिल्म में टटकापन भी आ गया है। ये देसाई और उनके कहानी लेखकों की आंशिक मौलिकता है- ऐसा दावा किया जा सकता है।
अक्षय कुमार ने इसमें नौसेना कमांडर रुस्तम पावरी की भूमिका निभाई है। जहाज पर एक लंबा वक्त बिताने के कुछ महीनों बाद जब रूस्तम घर आता है तो पाता है उसकी पत्नी सिंथिया (इलीना डीक्रूज) घर पर नहीं है। फिर उसे मालूम होता है सिंथिया दो दिनों से घर नहीं आई है और तहकीकात से जानकारी मिलती है विक्रम नाम के एक व्यापारी से, जो रूस्तम और उसकी पत्नी- दोनों का दोस्त है, से सिंथिया से रिश्ते है। रूस्तम अपने दफ्तर जाता है और वहां से सरकारी पिस्तौल लेता है और विक्रम के घर जाकर उसकी हत्या कर देता है। फिर थाने जाकर कह देता है कि उसने ऐसा किया। पर आगे चलकर वह अदालत में अपने को निर्दोष साबित करने की दलील देता है और अपना मुकदमा खुद लड़ता है, बिना किसी वकील के। अपने नौसेना वाले पहरावे को वह कभी नहीं उतारता। क्या रुस्तम अपने को अदालत में निर्दोष साबित कर पाएगा और बरी हो पाएगा? फिल्म की कहानी इसी पर केंद्रित है।
जिस समय नानावती प्रकरण हुआ था उस समय देश की न्याय प्रणाली में ज्यूरी की व्यवस्था थी। अब वह नहीं है। अब न्यायाधीश खुद सुनवाई करते हैं और फैसला सुनाते है।रूस्तम’ फिल्म मे ज्यूरी की भूमिका भी है। इसमें सारी नाटकीयता अदालती दृश्यों में है। निर्देशक ने और अभिनेता अक्षय कुमार ने इन दृश्यों को रोचक बनाए रखा है। इलीना डीक्रूज के पास करने के लिए कुछ खास नहीं था। इसलिए उनकी भूमिका सीमित है। लगभग हमेशा उदास। नानावती प्रकरण जब हुआ था तब ब्लिट्ज के तत्कालीन मालिक-संपादक रूसी करंजिया ने नानावती के पक्ष में अभियान चलाया था। उस प्रसंग की झलक फिल्म में है और कुमुद मिश्रा ने ट्रूथ’ नाम के जिस टेबलायड के मालिक-संपादक बिलमोरिया की भूमिका निभाई है वह करंजिया की भूमिका से मिलती जुलती है। पर विक्रम की बहन की भूमिका में ईशा गुप्ता को खलनायिकानुमा बना दिया गया है, हालांकि उसकी जरूरत नहीं थी। जो लोग नियमों और कानूनों के जानकार हैं उनको ये बात अटपटी लग सकती है कि आखिर रुस्तम अपनी गिरफ्तारी के बाद का सारा समय पुलिस कस्टडी में कैसे बिताता है। क्योंकि मुकदमा चलने के दौरान तो उसे जेल में होना चाहिए या जमानत पर बाहर। लेकिन हिंदी फिल्मों में उस तरह का अटपटापन हमेशा रहता है।
शतरंज के खेल का इस्तेमाल निर्देशक ने प्रतीकात्मक रूप में किया है। अक्षय कुमार के कई बार अकेले और एक बार पुलिस इंस्पेक्टर (पवन मल्होत्रा) के साथ बाजी जमाने के दृश्य हैं । वजीर कुर्बान करके भी आप सामनेवाले को मात दे सकते हैं- ये मंतव्य रुस्तम’ में अंतर्धारा के रूप में मौजूद है। नानावती प्रकरण पर हिंदी में पहले भी फिल्में बन चुकी है। लेकिन कामयाब नहीं हुई। देखते हैं रुस्तम’ का क्या होगा?