ये एक प्रेरणादायी फिल्म है और जिसमें दो बातें अहम हैं। एक तो ये है कि गरीब लोग भी मेहनत और लगन से आगे बढ़ सकते हैं और दूसरे ये कि जो गणित में कमजोर हैं वे भी परिश्रम से इस विषय में मजबूत हो सकते हैं। नील बटे सन्नाटा एक मुहावरा है। इस मुहावरे का इस्तेमाल उत्तर भारत के कई इलाकों में जो गणित या किसी विषय में शून्य अंक प्राप्त करते हैं उन पर मजाकिया टिप्पणी के प्रयोग में लाया जाता है। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने नील बटा सन्नाटा अंक पाया है।

स्वरा भास्कर ने चंदा नाम की एक महिला की भूमिका निभाई है जो बाई का काम करती है और अपनी बेटी अपू (रिया शुक्ला) को डॉक्टर या इंजीनियर बनाना चाहती है। लेकिन बेटी का कहना है जैसे डॉक्टर की बेटा डॉक्टर बनता है और इंजीनियर का बेटा इंजीनियर वैसे ही वह चूंकि बाई की बेटी है इसलिए बाई ही बनेगी। चंदा ये सुनकर सन्न रह जाती है कि उसकी बेटी के पास तो बड़ा सपना ही नहीं है। जिस महिला के यहां चंदा काम करती है (रत्ना पाठक शाह) उसकी सलाह पर एक कदम उठाती है। वह उसी स्कूल और उसी कक्षा में दाखिला लेती है और पढ़ना शुरू करती है, जिसमें उसकी बेटी पढ़ती है। जब जागो तभी सवेरा–वाला सिद्धांत। और फिर वही होता है जिस मकसद से चंदा ने सब शुरू किया था। हालांकि बीच में कई तरह उतार चढाव आते हैं।

फिल्म में स्वरा भास्कर ने मां और विद्यार्थी की जबर्दस्त भूमिका निभाई है। सबसे प्रभावशाली है वह दृश्य जिसमें वह कलक्टर के यहां पहुंचती है और उससे पूछती है कि कलक्टरी की पढ़ाई कहां होती है। वह एक यादगार सीन है। शिक्षक के रूप में पंकज त्रिपाठी ने अपने अभिनय में हास्य का जो पुट घोला है वह स्कूली शिक्षा पर व्यंग्य भी है और उनकी अभिनय क्षमता का प्रमाण भी। `नील बटे सन्नाटा’ को बच्चों और साधनहीनों को जरूर देखना चाहिए। आपके सपने बड़े और आप उसके मुताबिक मेहनत करते हैं तो मंजिल मिल जाती है।

निर्देशक- अश्विनी अय्यर तिवारी
कलाकार-स्वरा भास्कर, रिया शुक्ला, पंकज त्रिपाठी, रत्ना पाठक शाह