फिल्म को देखकर कुछ साल पहले आई `लफंगे-परिंदे’ और कुछ और फिल्मों की याद आ जाए तो इसे संयोग नहीं मानना चाहिए। फिल्म की कहानी का यह प्लॉट पहले कुछ और फिल्मों में दिख चुका है कि प्रेमी को इस बात का अपराध बोध है कि उसकी वजह से प्रेमिका के साथ एक हादसा हुआ और उसकी भरपाई के लिए वह कोई जोखिम मोल ले। `दो लफ्जों की कहानी’ में भी यही होता है। पर इसके बावजूद फिल्म में ताजगी है। इसकी कुछ खास वजहें हैं।
एक तो काजल अग्रवाल हैं जो वैसे तो तेलगु फिल्मों की चर्चित अभिनेत्री हैं और कुछ हिंदी फिल्मों में भी दिखी है। पर इसमें कोई शक नहीं कि `दो लफ्जों की कहानी’ काजल अग्रवाल की अब तक कि सबसे बेहतरीन हिंदी फिल्म है। इसके पहले किसी भी हिंदी फिल्म में वे न तो खूबसूरत लगीं है और न मासूम। और रणदीप हुडा भी रोमांटिक हीरो बनने की राह में कुछ कदम चल पड़े हैं। हालांकि इस फिल्म में उनकी रोमांटिकता खामोशी में ही ज्यादा उभरती है। वे एक ऐसे हीरो बने हैं जो आत्म बलिदान देकर प्यार को पाना चाहता है।
`दो लफ्जों की कहानी’ में सूरज मलेशिया में रहता है और वो एक बॉक्सर है। बॉक्सिंग की दुनिया में वो एक मुकाम पर पहुंचने ही वाला है कि एक जाल में फंसता है और जेल चला जाता है। और वहां से निकलने पर उसकी जिंदगी एक भंवर में फंस जाती है। फिर आती है उसके जीवन में जेनी (काजल अग्रवाल) नाम की एक लड़की जो एक दुर्घटना में अपनी आंख खो देती है लेकिन एक हिंदी टीवी सीरियल की फैन है और उसे लगातार देखती यानी (सुनती है) है। जेनी के साथ हुई दुर्घटना से सूरज किस तरह जुड़ा था और इसके बाद वो (सूरज) क्या-क्या करता है, क्या जेनी फिर से देख सकती है- इन्हीं बिंदूओ पर फिल्म टिकी है।
फिल्म में अगर कुछ अच्छे गाने होते तो ये ज्यादा बेहतर रोमांटिक फिल्म होती। रणदीप का चरित्रांकन ही कुछ ऐसा है कि वे हमेशा गमगीन बने रहते हैं फिर भी एक संजीदा रोमांटिक अभिनेता के रूप में कुछ हद तक उभरे हैं। फिल्म में एक बात जरूर खटकती है कि अगर सारे अहम किरदार भारतीय ही रखने थे, मुख्य किरदारों से लेकर डॉक्टर और बॉक्सिंग के धंधेबाज, तो इसका लोकेशन मलेशिया में रखने की क्या जरूरत थी? हालांकि इस सवालिया निशान के बावजूद ये फिल्म दीपक तिजोरी को एक सफल निर्देशक होने का प्रमाणपत्र तो दे ही देगी।
निर्देशक-दीपक तिजोरी
कलाकार- रणदीप हुडा, काजल अग्रवाल