योगेन्द्र माथुर
गुरु के निस्पृह तथा वीतराग व्यक्तित्व की पूजा सदा से होती आई है और होती रहेगी, क्योंकि वह सरस्वती का साधक होता है और सब दानों में श्रेष्ठ व अमूल्य विद्या दान करता है। सनातन संस्कृति में गुरु को इन शब्दों में नमन किया गया है- गुरुर्ब्रह्म गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्में श्री गुरुवे नम:।।
गुरु का स्थान ईश्वर से भी महान बताया गया है, जिसका बखान ये पंक्तियां करती हैं- गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय।। किसी भी व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में जहां एक ओर माता-पिता व अभिभावकों की अहम भूमिका होती है, वहीं गुरु का भी बहुत बड़ा योगदान होता है। गुरु के हाथ मे वह शक्ति होती है जो किसी शिष्य को नया जन्म देती है।
उसके जीवन में उन गुणों का विकास करती है जिन्हें पाकर वह सही अर्थों में मनुष्य बन जाता है। इसीलिए माता, पिता के समान ही गुरु का सम्मान करने को कहा गया है। गुरु समाज को गढ़ने वाला शिल्पी कलाकार है, जिसकी प्रशंसा में ये पंक्तियां लिखी गई हैं-गुरु कुम्हार कुंभ शिष्य है, गढ़-गढ़ काढ़े खोट।अंदर हाथ सहारा दे, बाहर मारे चोट।।
गुरु धारण करने का अर्थ है जीवन में संयम, अनुशासन और सद्विचारों की ओर अपने को मोड़ लेना। गुरु ही होता है जो हमें सदाचार व सदमार्ग की दिशा में हमारा पथ प्रदर्शन करता है। गुरु कौन? जो जीवन जीने के गुर सिखलाए, जो हमारे अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर सत्य का साक्षात्कार कराए, जो आत्म साक्षात्कार कराए या परम सत्ता का साक्षात्कार कराए वही गुरु होता है – गुरु बिन ज्ञान कहां से लाऊं।
श्री दत्तात्रय तो भगवान हैं, ब्रह्म, विष्णु, महेश के संयुक्त स्वरूप। लेकिन उन्होंने भी गुरु बनाए, एक, दो नही पूरे चौबीस। पशु-पक्षी तक को उन्होंने अपना गुरु माना अर्थात सृष्टि के जिस प्राणी में उन्हें गुण नजर आए, जिनसे उन्हें कुछ सीखने को मिला, उन्हें गुरु रूप में स्वीकार कर लिया। निर्गुण भक्ति परम्परा के संत-कवि कबीरदास तो अत्यंत ज्ञानी थे लेकिन वे भी निगुरे नहीं रह सके। उन्होंने भी स्वामी रामानंद को गुरु रूप में स्वीकार किया।
सनातन धर्म में गुरु की प्रशस्ति से धर्मग्रंथ व सद्साहित्य भरे पड़े हैं, लेकिन गुरु की महिमा का बखान करना या समझ पाना संभव नही है।
कबीरदासजी के शब्दों में- सब धरती कागद करूं,लेखनी सब वनराय।सात समुद्र की मसि करूं,गुरु गुण लिखा न जाय।। समाज पर गुरु का वह ऋ ण होता है जिससे समाज कभी मुक्त नही हो सकता। संत रहीम ने गुरु का मूल्यांकन इन पंक्तियों में किया है- रहिमन गुरु अमृत की खान। शीश दिए गुरु मिले तो भी सस्ता जान।।
ज्योतिष में जिन लोगों की जन्म कुंडली में गुरु अर्थात बृहस्पति की स्थिति कमजोर होती है, उन्हें अन्य उपायों के साथ गुरु बनाने की सलाह दी जाती है। गुरु कृपा से ही हमारे सभी प्रकार के संकटों का निवारण होता है। गुरु का जीवन में होना परम सौभाग्य का विषय होता है। किसी कारणवश किसी के जीवन में गुरु का आगमन संभव न हो सका हो तो हमारे धर्मशास्त्रों, ऋषि-मुनियों एवं संतों ने ऐसे व्यक्ति के लिए आदिदेव शिव या रुद्रावतार हनुमानजी को मन से गुरु रूप में स्वीकार कर उनकी शरण में जाने का मार्ग बताया है।
गुरु का जीवन में आना जन्म जन्मांतरों के पुण्य का प्रतिफल होता है। गुरुकृपा का जीवन में जो महत्त्व है, उसका अनुभव बगैर गुरु की शरण में जाए करना असंभव है। गुरु की महिमा अपरंपार है, अवर्णनीय है। गुरु बिन कौन करे भव पार! किसी भी व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में जहां एक ओर माता-पिता व अभिभावकों की अहम भूमिका होती है, वहीं गुरु का भी बहुत बड़ा योगदान होता है। गुरु के हाथ मे वह शक्ति होती है जो किसी शिष्य को नया जन्म देती है। उसके जीवन में उन गुणों का विकास करती है जिन्हें पाकर वह सही अर्थों में मनुष्य बन जाता है।
ज्योतिष में जिन लोगों की जन्म कुंडली में गुरु अर्थात बृहस्पति की स्थिति कमजोर होती है, उन्हें अन्य उपायों के साथ गुरु बनाने की सलाह दी जाती है। गुरु कृपा से ही हमारे सभी प्रकार के संकटों का निवारण होता है। गुरु का जीवन में होना परम सौभाग्य का विषय होता है। गुरु धारण करने का अर्थ है जीवन में संयम, अनुशासन और सद्विचारों की ओर अपने को मोड़ लेना। गुरु ही होता है जो हमें सदाचार व सदमार्ग की दिशा में हमारा पथ प्रदर्शन करता है।