शास्त्री कोसलेंद्रदास
मीरा की शरणागति में ज्ञान, कर्म और भक्तिरूपी तीनों साधन पर कोई विश्वास नहीं है। मीरा को सब प्रकार से सिर्फ अपने गिरधारी का भरोसा है। वे कहती हैं – भरोसो भारी, ओ गिरधारी, शरण तिहारी। विशिष्टाद्वैत दर्शन में परमात्मा की प्राप्ति में वे स्वयं उपाय होते हैं, कोई अन्य नहीं।
मेवाड़ में मीरा
अप्रतिम भक्ति की जब कभी बात होती है तो सबसे ऊपरी नाम भक्ति की प्रत्यक्ष विग्रहभूता संत-भक्त-कवि मीरा (1504-1558 ईस्वी) का होता है। उनकी भक्ति की दार्शनिक आधारशिला विशिष्टाद्वैत है, जो छह वैदिक आस्तिक दर्शनों में एक वेदांत का महत्त्वपूर्ण संप्रदाय है। लगभग पांच सौ साल पहले मीरा ने मेवाड़ में देशज भाषा में कविता कहना शुरू किया, जो देश और काल की सीमा का अतिक्रमण कर दुनिया भर को सम्मोहित किए हुए है। मीरा की वाणी सच्चे अर्थों में कालजयी है। यदि कालजयी न होती तो विस्मरण भरे आज के दौर में पांच शताब्दियां बीत जाने के बाद भी जीवित कैसे रहती?
मीरा की भक्ति साधना
हरेक कविता या गीत अपने काल और परिस्थितियों से प्रभावित होता है। उसमें तात्कालिक अच्छाई-बुराई की परिस्थितियों के पुट जुड़े होते हैं, जो उस समय की अभिव्यक्ति के आधार को बताते हैं। मीरा के साहित्य में भी ये सारी बातें हैं। मीरा की कविता पढ़ने से उस वक्त की लोकभाषा और परिस्थितियों के बारे में जानकारी होती है। मीरा के पद आध्यात्मिक और सामाजिक ताने-बाने के रहस्य खोलते हैं। सच्ची श्रद्धा और सच्चे विवेक के द्वार उद्घाटित करते हैं। वे जहां सहृदय-संत-भक्तों को प्रभावित करते हैं वहीं भाषाविदों और काव्यशास्त्रियों को भी आप्यायित तथा सम्मोहित करते हैं।
मीरा के देशज भाषा में लिखे पदों में भारत की प्राचीन दार्शनिक पद्धति में संस्कृत भाषा में लिखे जटिल सूत्रों की भरमार है। मीरा के पदों की भक्ति संवेदना में लोकोत्तर तेज है। मुक्ति की अदम्य अभिलाषा है। उसके संपूर्ण क्रियान्वयन के लिए परमात्मा के प्रति समर्पण का अटूट विश्वास है। गिरिधर नागर रक्षा करेंगे ही, यह देखना हो तो मीरा की भक्ति साधना में देखिए, जहां राणा जी भेज्यो विष को प्यालो पीबत मीरां हांसी रे! तथा राणो रूठै नगरी राखे, हरि रूठ्या कित जास्यां है। इस साधना में अलौकिक श्रद्धा तो है ही साथ में वैदिक सिद्धांत भी गहरा समाया हुआ है। यह सिद्धांत जुड़ा है भक्ति की सबसे पुरानी आलवार धारा से।
दासी मीरा जनम की शरणै…
मीरां की प्रार्थना दास्य भक्ति को प्राप्त करने में है। वे कहती हैं – म्हाने चाकर राखो जी गिरधारी। मीरा की शरणागति में ज्ञान, कर्म और भक्तिरूपी तीनों साधन पर कोई विश्वास नहीं है। तभी तो मीरा को सब प्रकार से सिर्फ अपने गिरधारी का भरोसा है। वे कहती हैं – भरोसो भारी, ओ गिरधारी, शरण तिहारी।
विशिष्टाद्वैत दर्शन में परमात्मा की प्राप्ति में वे स्वयं उपाय होते हैं, कोई अन्य नहीं। इतना ही नहीं मीरा का भगवत्संबंध संपूर्ण है।
उसमें जरा भी किसी दूसरे का सहारा और आश्रय नहीं है। सांसारिक आभासबंधुओं के त्यागपूर्वक भगवान गिरिधर गोपाल ही सब कुछ हैं – म्हारे रे गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई। भाई छाड्या बंधा छाड्या छाड्या सगा सोई। साधां संग बैठि बैठि लोक लाज खोई। मीरां के लिए मुरली मनोहर पति हैं, सांवरे हैं और सखा भी!