ऋतुराज बसंत के आगमन के साथ जहां संपूर्ण प्रकृति अत्यंत आल्हादित हो उठती है, वहीं जनमानस में भी एक विशिष्ट रस का संचार होने लगता है और खासकर बृज मण्डल में तो इसका अनुभव अनूठा ही होता है। पूरे बृज मण्डल के देवालयों में बसंत पंचमी से ही उत्सवों का श्रीगणेश होने लगता है। रंगभरी पिचकारी में परम्परागत टेसू के रंग से बना सुगंधित रंग एवं सात रंगों के गुलाल की घुमड़न वातावरण में दैवीय कल्पना को साकार कर देते हैं।

जहां तक देवालयों के उत्सवों की परंपरा का विषय है तो वहां श्री दाऊजी महाराज के देवालय की परंपरा बिल्कुल अनूठी है। बलदेव जी का एक नाम कामपाल है। इसके कारण मदन महोत्सव के वे मुख्य देवता माने जाते हैं। साथ ही, श्रीकृष्ण तथा प्रकृति रूपा श्री राधारानी व श्री रेवती तथा उनकी सखियों की मौजूदगी भी होती है। श्री दाऊजी मंदिर में यह उत्सव माघ शुक्ल बसंत पंचमी से प्रारंभ होकर चैत्र कृष्णा पंचमी यानी डोलोत्सव तक चलता है।

मंदिर में परंपरागत समाज गायकी की स्वर लहरी गूंजने लगती है और ‘खेलत बसंत बलभद्र देव। लीला अनंत कोई लहै न भेद’ जैसे पदों का गायन झांझ, ढप, मृदंग व हारमोनियम जैसे साजों के साथ प्रारंभ हो जाता है। बलदेव स्थित श्री हलधर समग्र दर्शन शोध संस्थान के निदेशक डॉ. घनश्याम पाण्डेय बताते हैं कि जैसे ही फागुन मास आता है तो अनेकानेक समयानुरूप होली गायन प्रारंभ होते हैं। सभी साजों की संगत के साथ समाज के स्वरूप का अनुमान तो इससे ही लगता हैं कि समूह समाजगायन की आवाज बिना किसी लाउडस्पीकर आदि के ही मीलों दूर तक सुनी जा सकती है। शिवरात्रि के दिन का समाज गायन में विशेष महत्व है।

होली की पूर्णिमा से विशेष उत्सव प्रारंभ हो जाता है। देवालय में रंग, गुलाल, अबीर और चन्दन की बौछारें दर्शकों के मन को मोह लेती हैं। संध्या के समय श्री ठाकुर जी के प्रतीक आयुध हल-मूसल के साथ समाज होली पूजने जाती है। इसमें हजारों की संख्या में बाल और वृद्ध भी सम्मिलित होते हैं। यह जुलूस अपने जैसा संपूर्ण बृज मण्डल में अकेला ही है। परिक्रमा मार्ग से लेकर होली पूजन स्थल करीब दो किमी है।

सारे मार्ग में गुलाल और भुड़भुड़ की तहें जम जाती है। श्री नारायणाश्रम से प्रारम्भ यह यात्रा दो घण्टे में पूरी होती है। रात्रि की समाज में ‘भागिन पायो री सजनी यह होरी सौ त्योहार’ की शब्दावली अंत:करण को छू जाती है। प्रतिपदा को मंदिर में वही रंग-गुलाल और दोपहर को सहस्त्राधिक भाभी-देवर मंदिर के प्रांगण में परंपरागत महारास का आयोजन करते हैं। सेवायतों की कुल वधुएं अपने देवरों के साथ विशिष्ट परिधानों से नृत्य करती हैं। शहनाई और नगाड़े की स्वरलहरी दर्शकों के लिए दिव्यानुभूति का कारण बन जाती हैंै।

द्वितीया के दिन (इस साल 28 मार्च को) हुरंगा होता हैं। प्रात: 11 बजे से ही मंदिर प्रांगण में रंग की भरमार हो जाती है। बड़ी-बड़ी हौजों में टेसू के परम्परागत रंग की छटा बिखर जाती है। मंदिर प्रांगण में तथा चारों और छतों पर दर्शकों की भीड़ में एक तिल रखने की भी जगह भी नहीं बचती है। दोपहर 12 बजे राजभोग के साथ समाज होती हैं तथा दोनों भाइयों के प्रतीक दो झण्डे श्री ठाकुर जी की आज्ञा से मंदिर के मध्य में उपस्थित होते हैं। इधर, सेवायत गोस्वामी वर्ग की वधुएं एवं ग्वाल-बाल स्वरूप पंडगान मंदिर में एकत्रित होते हैं। पहले नृत्य होता है, उसके पश्चात ठाकुर जी की आज्ञानुसार खेल हुरंगा प्रारंभ हो जाता है।

आकाश में उड़ते गुलालों के रंगों का मिश्रण बरबस ही मन मोह लेता है। इस वर्ण सम्मिरण के लिए अनक कलाविद यहं वर्ण संयोजन का अनुभव एवं आनंद लेने आते है। यह हुरंगा का खेल तीन बजे तक चलता है। खेल के मध्य विराजित झुण्डों का श्री रेवती जी एवं श्री राधा के इशारे पर हुरियारी लूट लेती हैं। इस प्रकार उत्सव पूर्णता की ओर अग्रसर होता है तथा सभी खिलाड़ी परिक्रमा हेतु अग्रसर होते हैं। इस उत्सव में भांग के अनेक प्रकार के मिश्रण ठाकुर जी के भोग धराए जाते हैं। पूरे दिनभर में करीब 20 मन तक गुलाल उड़ता है, जो कि एक रेकार्ड है। पंचमी के दिन होली की चरम परिणिति डोल के रूप में होती है। मंदिर में मध्याग्रह में समाज रंग गुलाल होता है।