शास्त्री कोसलेंद्रदास

पूर्ण सूर्य और चंद्र ग्रहण के आरंभिक संकेत ऋग्वेद में हैं। बृहत्संहिता से प्रकट होता है कि ग्रहण का वास्तविक कारण भारतीय ज्योतिष शास्त्रज्ञों को वराहमिहिर (ईसा की छठी शताब्दी का पूर्वार्ध) के कई शताब्दियों पूर्व से ज्ञात था। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में लिखा है – चंद्र ग्रहण में चंद्र पृथ्वी की छाया में आ जाता है। सूर्य ग्रहण में चंद्र सूर्य में प्रविष्ट हो जाता है यानी सूर्य एवं पृथ्वी के बीच में चंद्र आ जाता है। ग्रहणों के इस कारण को पहले के आचार्य अपनी दिव्य दृष्टि से जानते थे। गणित ज्योतिष के अनुसार राहु ग्रहणों का कारण नहीं है, यही सत्य स्थिति है जिसे शास्त्र घोषित करता है।

राहु है लाक्षणिक रूप

ज्योतिष शास्त्र के सत्य सिद्धांत के रहते हुए सामान्य लोग, यहां तक कि पढ़े-लिखे लोग पहले विश्वास करते थे और अब भी विश्वास करते हैं कि राहु के कारण ग्रहण लगते हैं और उन्हें स्नान, दान, जप, श्राद्ध आदि का विशिष्ट अवसर मानते हैं। वराहमिहिर ने श्रुति, स्मृति, सामान्य विश्वास एवं ज्योतिष के सिद्धांत का समाधान करने का प्रयत्न किया है और कहा है कि एक असुर था, जिसे ब्रह्मा ने वरदान दिया था कि ग्रहण पर दिए गए दानों एवं आहुतियों से तुमको संतुष्टि प्राप्त होगी।

वही असुर अपना अंश प्राप्त करने को उपस्थित रहता है और उसे लाक्षणिक रूप से राहु कहा जाता है। बुद्धिवाद, सामान्य परम्पराएं और अंधविश्वास एक साथ नहीं चल सकते। सूर्य एवं चंद्र के ग्रहण में कुछ अन्तर उपस्थित किया गया था। व्यास की उक्ति है – चंद्र ग्रहण (सामान्य दिन से) लाख गुना फलदायक है और सूर्य ग्रहण पहले से दसगुना, यदि गंगा-जल (स्नान के लिए) पास में हो तो चंद्र ग्रहण एक करोड़ गुना अधिक (फलदायक) है और सूर्य ग्रहण उससे दस गुना अधिक।

ग्रहण पर करें स्नान

दान की महिमा का विचार कर धर्मशास्त्र ने ग्रहण पर्व से दान को जोड़ दिया। ग्रहण दर्शन पर प्रथम कर्तव्य है स्नान करना। ऐसा कहा गया है कि राहु देखने पर सभी वर्णों के लोग अपवित्र हो जाते हैं। उन्हें सर्वप्रथम स्नान करना चाहिए, तब अन्य कर्तव्य करने चाहिए, ग्रहण के पूर्व पकाए हुए भोजन का त्याग कर देना चाहिए। ग्रहण के उपरांत कहीं भी ठंडे जल से स्नान किया जाता है क्योंकि ग्रहण के समय सभी जल गंगा के समान पवित्र हो उठते हैं। गर्म जल का स्नान केवल बच्चों, बूढ़ों एवं रोगियों के लिए आज्ञापित है। जनन-मरण के आशौच में भी ग्रहण के समय स्नान करना चाहिए।

ग्रहण में नहीं करें भोजन

शातातप का कथन है कि ग्रहण के समय दान, स्नान, तप एवं श्राद्धों से अक्षय फल प्राप्त होते हैं, अन्य कृत्यों में रात्रि (ग्रहणों को छोड़कर) राक्षसी है, अत: इससे विमुख रहना चाहिए। याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर द्वारा की गई टीका मिताक्षरा ने उद्धृत किया है – ‘सूर्य या चंद्र के ग्रहणों के समय भोजन नहीं करना चाहिए।’

जब तक ग्रहण आंखों से दिखाई पड़ता है तब तक कि अवधि पुण्यकाल कही जाती है। जाबालि में आया है – सूर्य व चंद्र ग्रहण में जब तक दर्शन होता रहता है, वह पुण्यकाल है। विष्णुधर्मसूत्र में व्यवस्था है कि चंद्र या सूर्य ग्रहण काल में भोजन नहीं करना चाहिए। जब ग्रहण समाप्त हो जाए तो स्नान करके खाना चाहिए। यदि ग्रहण के पूर्व ही सूर्य या चंद्र अस्त हो जाएं तो स्नान करना चाहिए और सूर्योदय देखने के उपरांत ही पुन: खाना चाहिए। जब सूर्य एवं चंद्र ग्रहण से मुक्त हो जाए तो स्नानोपरांत खाया जा सकता है। जब चंद्र मुक्त हो जाए तो उसके उपरांत रात्रि में भी खाया जा सकता है।

ग्रहण से पहले सूतक

वृद्धगौतम का मत है कि केवल ग्रहण के काल में ही नहीं प्रत्युत चंद्र ग्रहण में आरंभ होने से 3 प्रहर (9 घंटे) पूर्व भी भोजन नहीं करना चाहिए और सूर्य ग्रहण के आरंभ के चार प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए, किंतु यह नियम बच्चों, वृद्धों एवं गर्भवती स्त्रियों के लिए नहीं है। यह तीन या चार प्रहरों की अवधि (ग्रहण के पूर्व से) प्राचीन काल से अब तक ‘वेध’ नाम से विख्यात है।

ग्रहण का जन्म नक्षत्र पर प्रभाव

विष्णुधर्मोत्तर पुराण में आया है कि जिस नक्षत्र में सूर्य या चंद्र का ग्रहण होता है, उसमें उत्पन्न व्यक्ति दुख पाते हैं पर इन दुखों का मार्जन शांति कृत्यों से हो सकता है। अत्रि की उक्ति है कि यदि किसी व्यक्ति के जन्म-दिन के नक्षत्र में चंद्र एवं सूर्य का ग्रहण हो तो उस व्यक्ति को व्याधि, प्रवास, मृत्यु एवं राजा से भय होता है।