नरपतदान चारण
ईर्ष्या दूसरों पर वार करती है और अपना संहार करती है। ईर्ष्या से उपजा द्वेष आत्मा के लिए अहितकर व आत्म विकास में बाधक होता है। ईर्ष्या से ही आत्मा में समाए हुए स्वाभाविक गुणों पर पर्दा पड़ जाता है। जिससे कई बार मनुष्य का विवेक पथभ्रष्ट होकर खो जाता है और न करने जैसे कार्य कर बैठता है अथवा नहीं कहने जैसी बात कह देता है।
जिसके परिणाम स्वरूप कटुता का वातावरण बन जाता है। हालांकि स्वभावत: मानव के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में भी ईर्ष्या द्वेष की प्रवृत्ति होती है। परंतु वे अपने परिचितों के साथ ईर्ष्यालु व्यवहार नहीं करते जबकि मानव अपनों से भी ईर्ष्या करता है। जहां एक-दूसरे के स्वार्थ टकराते हैं वहां ईर्ष्या द्वेष की भावना पनपने लगती है।
वैसे तो छोटे बच्चों में भी पूर्व के संस्कारों के कारण स्वार्थ व ईर्ष्या के लक्षण दिखाई देते हैं। जब वे किसी वस्तु के लिए आपस में लड़ते हैं अथवा कभी कोई मां दूसरे बच्चे को प्यार से गोद में ले लेती है तो स्वयं का बच्चा रूठने लगता है, उस बच्चे से ईर्ष्या करने लगता है। क्षण भर पश्चात ही बच्चे फिर आपस में खेलने लग जाते हैं । परंतु यह सहज प्रवृत्ति है, जो बड़ों में आना कठिन है। बड़े लोगों में ईर्ष्या और डाह आपसी द्वेष का कारण बनती है। ईर्ष्या से कभी किसी का भला नहीं होता है।ईर्ष्या का मतलब ही किसी की सफलता से जलकर अनिष्ट सोचना है।
इस तरह दूसरों का अनिष्ट चाहने में अपनी ही हानि होती है। देखने में भले लगे कि हमें तात्कालिक लाभ हुआ है पर वास्तव में हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी हानि पहुंचती है।जिस व्यक्ति का हम बुरा चाहते हैं उस व्यक्ति को तो पता तक नहीं होता कि कोई उसके बारे में बुरे विचार रखता है। किसी के प्रति ईर्ष्या का विचार आने पर स्वयं सबसे पहले ईर्ष्या करने वाले का ही रक्त जलता है और उसके विचार नकारात्मक होने लगते हैं।
मन अशांत हो जाता है जिसका असर दिनचर्या पर पड़ता है। जो दूसरों से ईर्ष्यावश द्वेष भाव रखता है, वह स्वयं ही उससे पहले प्रभावित होता है।जब हम जानते हैं कि दूसरों से ईर्ष्या करने पर, उनका अनिष्ट चाहने पर हमको क्षति पहुंचेगी, हमारी आत्मा दूषित हो जाएगी, हमें कहीं भी शान्ति नहीं मिलेगी तो फिर हम क्यों दूसरे के प्रति बुरे विचार रखते हैं?
यदि हम यह सब जानते और समझते हुए भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या का भाव रखते हैं,और उनके प्रति बुरे विचार रखते हैं तो फिर यह समझ लीजिए कि हम अपने हाथों द्वारा स्वयं को ही बुरा बना रहे हैं।आग जहाँ रखी जाती है पहले उस स्थान को गरम करती और जलाती है। तेजाब जिस बर्तन में रखा गया है सबसे पहले उसे ही जलाएगा। उसी प्रकार ईर्ष्या के बुरे विचार जिसके मन में रहते हैं। पहले उसी की हानि करते हैं।
जितने समय तक ये मन में जमे रहते हैं तब तक निरन्तर क्षति पहुंचाने का कार्य करते हैं।यदि किसी से हमारे मतभेद हों,विरोधी विचार हों तो उसे उचित माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त करना चाहिए, पर मन में उसकी गाँठ बाँध लेना और फिर उम्र भर के लिए ईर्ष्या और क्रोध को पाल लेना स्वभाव के लिए घातक है।