रिश्तों के बिना जीवन का कोई अस्तित्व नहीं है। मजबूत रिश्तों के आधार पर ही हमारा जीवन दुखमय या सुखमय होता है। नि:संदेह मजबूत रिश्ते की रौनक हमारे चेहरे पर दिखाई दे जाती है तो कमजोर रिश्ते की उदासी भी हमारा चेहरा प्रकट कर देता है। लेकिन हम सभी रिश्तों का महत्व कहां समझ पाते हैं।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि रिश्तों को समझने में ही सारी जिंदगी निकल जाती है। कुछ रिश्तों को हम कभी समझ ही नहीं पाते हैं। हम जिन रिश्तों को समझने का दावा करते हैं, क्या वास्तव में उन रिश्तों को भी ठीक से समझ पाते हैं? इंसान ताउम्र रिश्तों का जाल बुनता रहता है और फिर अपने ही बनाए जाल में फंसता चला जाता है। निश्चित रूप से जीवन के अस्तित्व के लिए यह जाल बुनना भी आवश्यक है लेकिन समस्या तब आती है जब हम जाल बुनने में जल्दबाजी करते हैं।
हमारा ध्यान सिर्फ जाल बुनने पर केंद्रित रहता है। हमें रिश्तों का जाल बुनने की जल्दी तो रहती है लेकिन रिश्तों को समझने का धैर्य हमारे अंदर नहीं होता है। रिश्तों को बुनने में न ही तो हम धैर्य दिखाते हैं और न ही गंभीरता। यही कारण है कि हमारे रिश्ते जल्दी ही दरकने लगते हैं। एक बार जब रिश्ते दरकने लगते हैं तो अविश्वास की खाई गहरी और चौड़ी होती चली जाती है।
आपसी विश्वास बहुत जरूरी
दरअसल मजबूत रिश्तों के लिए आपसी विश्वास बहुत जरूरी है। अगर हमारे रिश्ते विश्वास की बुनियाद पर नहीं टिके हैं तो उनका बहुत जल्दी दरकना तय है। यह कटु सत्य है कि एक दूसरे पर भरोसा करने की प्रक्रिया समर्पण के बिना पैदा नहीं हो सकती है। अगर एक दूसरे के प्रति समर्पण नहीं है तो आपसी विश्वास पैदा हो ही नहीं सकता।
हमारी सबसे बड़ी गलती यही होती है कि हम एक दूसरे के प्रति सच्चे हृदय से समर्पित नहीं होते हैं और गलत दिशा में चलकर आपसी विश्वास पैदा करने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं। जब हम समर्पण की दिशा में आगे बढ़ते हैं तो हमें बहुत सारे निजी स्वार्थ छोड़ने पड़ते हैं। समस्या यह है कि हम निजी स्वार्थ छोड़ नहीं पाते हैं और समर्पण की दिशा में आगे बढ़ने का दावा करने लगते हैं।
‘समर्पण’ और ‘स्वार्थ’ की दिशाए एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। अगर हमारे मन में किसी भी तरह का स्वार्थ है तो वह किसी भी हाल में हमारे हृदय में समर्पण की भावना पैदा नहीं होने दे सकता। विडंबना यह है कि हम समर्पण के अर्थ और प्रक्रिया को समझ नहीं पाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि अपने हृदय से हर तरह के स्वार्थ को बाहर निकालने का अर्थ ही समर्पण है। क्या हम रिश्तों को निभाने की प्रक्रिया में अपने छोटे-छोटे स्वार्थों को बाहर निकाल पाते हैं ? नि:संदेह हम ऐसा नहीं कर पाते। फलस्वरूप हमारे रिश्तों में दरार आने लगती है।