शास्त्री कोसलेंद्रदास
श्रावण और भाद्रपद मास को जोड़ने वाली तिथि है पूर्णिमा। गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस में ये दोनों मास ‘राम’ नाम के दो वर्ण हैं, जो भक्तों के जीवन के आधार हैं। श्रावणी पूर्णिमा सदियों से भारतीय समाज के उल्लास एवं परंपरा की प्रतिनिधि है। यह दिन नदियों और सरोवरों के जलपूरित होने के नाते न केवल जन-मन को रसाप्लावित करता है बल्कि जल-तत्व की आराधना करने की प्रेरणा भी देता है। उपनिषदों में स्पष्ट है कि जल परमात्मा का शरीर है, जो सृष्टि का उत्पादक, नियामक एवं संहारक है। वह ब्रह्म ही जब अमृत रूप में पिघलता है तो जल का स्वरूप धारण कर लेता है।
श्रावणी पूर्णिमा से शिक्षण
मनुस्मृति के अनुसार यह दिन सदियों से गुरुकुलों में वेदों की शाखाएं दोहराने का है। यही दिन पुरोहितों द्वारा तीर्थों में उपाकर्म करने का है, जिसे श्रावणी कहा जाता है। उपाकर्म यानी शास्त्र पढ़ने की शुरुआत। शास्त्रीय मान्यता है कि गुरुकुलों में श्रावणी पूर्णिमा से शैक्षणिक सत्र आरंभ होता था। दूसरे लोगों का कहना है कि माघ महीने से चले आ रहे शैक्षणिक सत्र का समापन दिन श्रावणी है। जो भी कारण रहा हो पर गुरुकुलों में यह दिन अध्ययन और अध्यापन के हिसाब से महत्त्व का है। वह कृत्य जो वेदाध्ययन के आरंभ-काल में होता है, उपाकर्म कहलाता है। आश्वलायन गृह्यसूत्र का कहना है – जब ओषधियां एवं वनस्पतियां उपज जाती हैं, श्रावण मास के श्रवण एवं चंद्र के मिलन में पूर्णमासी को या हस्त नक्षत्र में श्रावण की पंचमी को उपाकर्म होता है।
श्रावणी पूर्णिमा को सर्पबलि
आश्वलायन गृह्यसूत्र, पारस्कर गृह्यसूत्र एवं अन्य गृह्यसूत्रों में श्रावण की पूर्णिमा को ‘सर्पबलि’ कृत्य किए जाने का विधान है। महाभारत में नागों का बहुत उल्लेख है। अर्जुन ने जब 12 वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत धारण लिया था तो वे नागों के देश (ऐसी जाति जिसका चिह्न नाग था) में गए थे और अपनी ओर आकृष्ट नागकुमारी उलूपी से विवाह किया था। अश्वमेध के अश्व की रक्षा में आए हुए अर्जुन से मणिपुर में चित्रांगदा के पुत्र बभ्रुवाहन ने युद्ध किया और अर्जुन को मार डाला, जो संजीवन रत्न से पुनर्जीवित किए गए। सर्पों का सम्बन्ध विष्णु और शिव, दोनों से है। विष्णु शेष नाग की शय्या पर सोते हैं और शिव नागों को गले में यज्ञोवपीत के रूप में रखते हैं। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने को सर्पों में वासुकि तथा नागों में अनंत कहा है। सर्प एवं नाग में क्या अंतर है, स्पष्ट नहीं हो पाता। संभवत: सर्प शब्द सभी रेंगने वाले जीवों तथा नाग फण वाले सांप के लिए प्रयुक्त है।
पुराणों में नागों के विषय में बहुत-सी कथाएं हैं। वोगेन ने ‘इण्डियन सर्पेण्ट लॉर’ में कष्टसाध्य शोध-कार्य महाभारत, पुराणों और राजतरंगिणी के आधार पर किया है। सम्भवत: वर्षा ऋतु में सर्प-दंश से बहुत-से लोग मर जाया करते थे, अत: सर्प पूजा का आरम्भ सर्प भय से ही हुआ था। गृह्यसूत्रों में वर्णित सर्पबलि की पूर्णिमा तिथि शुक्ल पक्ष की पंचमी में क्यों परिवर्तित हो गई, स्पष्ट रूप से कारण ज्ञात नहीं हो पाता। विषुवत रेखा पर पहले वर्षा हो जाने के थोड़े परिवर्तन के कारण ही ऐसा हो सका है। पीपल जैसे पवित्र वृक्षों के नीचे सर्पों की प्रस्तर-प्रतिमाएं द्रविड़ देश में साधारण रूप से प्राप्त होती हैं। दक्षिण में कुछ नाग-मंदिर भी पाए जाते हैं, यथा सतारा जिले में बत्तिय शिरालेन और हैदराबाद में भोग पराण्देन में।
श्रावणी को रक्षाबंधन
श्रावण की पूर्णिमा को एक कृत्य होता है, जिसे रक्षाबंधन कहते हैं। श्रावण की पूर्णिमा को सूर्योदय से पूर्व उठकर देवों, ऋषियों एवं पितरों का तर्पण करने के उपरांत अक्षत, तिल, धागों से युक्त रक्षा बनाकर धारण करना चाहिए। क्षत्रिय को राजपुरोहित से मन्त्र के साथ रक्षा बंधवानी चाहिए और उसे संतुष्ट करना चाहिए। पुरोहित को भविष्योत्तरपुराण के इस मन्त्र से रक्षा बांधनी चाहिए येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।। अर्थात आपको वह रक्षा बांधता हूं, जिससे दानवों के राजा बलि बांधे गए थे। हे रक्षे, तुम यहां से न हटो, न हटो। सभी लोगों को यथाशक्ति पुरोहितों को प्रसन्न करके रक्षा-बंधन करना चाहिए। जब ऐसा किया जाता है तो व्यक्ति वर्ष भर प्रसन्नता के साथ रहता है।
हेमाद्रि ने भविष्योत्तरपुराण का उद्धरण देते हुए लिखा है कि इंद्राणी ने इंद्र के दाहिने हाथ में रक्षा बांधकर उसे इतना योग्य बना दिया कि उसने असुरों को हरा दिया। रक्षा-बंधन का कृत्य अब भी होता है और पुरोहित लोग यजमान के दाहिनी कलाई में रक्षा बांधते हैं और दक्षिणा प्राप्त करते हैं। गुजरात, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और अन्य स्थानों में नारियां अपने भाइयों को राखी बांधती हैं और भेंट लेती हैं।
श्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता है संस्कृत दिवस
संस्कृत दिवस के लिए रक्षाबंधन का दिन चुनने के पीछे जो रहस्य है, वह वैदिक एवं पौराणिक परंपरा से जुड़ा है। 1969 में भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एवं शिक्षा मंत्री डॉ. वीकेआरवी राव ने इस दिन को संस्कृत दिवस के रूप में चुना, जिससे इस दिन की पारंपरिक महत्ता जीवित रखी जा सके। संस्कृत दिवस मनाना संस्कृत भाषा पर उपकार नहीं बल्कि यह इस अमर भाषा के प्रति आभार प्रकट करने का दिन हैं। नई पीढ़ी को संस्कृत का ऐतिहासिक महत्त्व समझाने के लिए है, जिससे वह संस्कृत के ज्ञान-विज्ञान और साहित्य को समझकर इसका उपयोग कर सके। संस्कृत में आदर्श और अनुशासन का मेल है। आध्यात्मिक और नैतिक स्तर पर व्यक्ति को मजबूत करने के साधन हैं।