शास्त्री कोसलेंद्रदास

संसार में शक्ति का सम्मान है, जिसे ऊर्जा कहा जाता है। समाज में उत्पादन का संकल्प और प्रयास शक्ति के उत्पादन का ही प्रयास है। शक्ति के बिना साधना नहीं होती। संसार शक्ति की प्राप्ति के लिए प्रयास करता है, जीवन जीता है। जो शक्ति को नहीं पूजते, उन्हें भी शक्ति चाहिए। शक्ति की पूजा दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, काली व अन्य देवी रूपों में होती है। वास्तव में शक्ति एक है, जिसके भिन्न-भिन्न नाम हैं। जो अग्नि पेट में भुक्त पदार्थों को पचाती है, वह भी शक्ति है। समुद्र में जो ताप है, वह शक्ति है।

शक्ति के पारमार्थिक और लौकिक स्वरूप को जानकर परंपरा में शक्ति और शक्तिमान, दोनों की पूजा की सुदीर्घ और सनातन शृंखला है। महर्षि वाल्मीकि ने कहा, मैं रामायण में माता सीता का चरित्र लिखूंगा, क्योंकि वह शक्ति है, उनके बिना श्रीराम कुछ नहीं। राम राज्य का छोटा-सा अंश भी माता सीता के बिना अधूरा है। अनादि काल से शक्ति पूजा चल रही है, शक्ति के बिना किसी का काम नहीं चलता। लोक-परलोक, दोनों जगह शक्ति चाहिए। ज्ञान पाने के लिए शक्ति चाहिए और विज्ञान के लिए भी। शक्ति से धन उत्पन्न होता है और धन की शक्ति से नानाविध कार्य संपन्न होते हैं। सनातन संस्कृति में शक्ति पूजन और उसके सम्मान की परंपरा प्रारंभ से है।

शक्ति के बिना भोग नहीं हो सकता। सृष्टि के विकास के लिए प्रजनन क्षमता में शक्ति चाहिए। किन्तु ध्यान रखने की बात यह है कि सम्पूर्ण शक्ति यदि भोग में लगा दी जाए, तो खेती कैसे होगी? जीवन यापन कैसे होगा? समाज कैसे सुंदर और सारगर्भी बनेगा? इसीलिए संसार में कोई व्यक्ति बहुत दिनों तक सम्पूर्ण शक्ति को भोग में नहीं लगा सकता। यदि ऐसा किया तो जीवन व्यर्थ और समाप्त हो जाएगा। शास्त्रों ने कहा कि शक्ति को स्वनिर्माण में लगाना चाहिए, परिवार, देश और समाज के निर्माण में लगाना चाहिए। शक्ति के उपयोग की शास्त्रीय विधि है। श्रीमद्भागवत में लिखा है, शक्ति से उत्पन्न परिणाम का एक भाग स्वयं के निर्माण में लगाना चाहिए, एक भाग परिजनों में, एक भाग राष्ट्र में, एक भाग धर्म में और एक भाग व्यवसाय में लगाना चाहिए।

शक्ति के अनेक क्रम हैं, लेकिन जो सर्वोच्च शक्ति है, उसके रूप में देवी पूजन है। आराधना से शक्ति अर्जित होती है। शक्ति पूजन का सुदीर्घ क्रम इसलिए है कि शक्ति के अर्जन और उपयोग की प्रक्रिया नियंत्रित व संतुलित बना रहे। तभी हमारे पुरखे शक्ति का पूर्ण विवेक के साथ उपयोग करते थे। पर अब शक्ति के प्रति सम्मान और सदुपयोग का भाव कम हो रहा है।

पहले दुर्गा पूजा केवल बंगाल और असम में होती थी, अब लगभग हर स्थान पर होने लगी है। दुर्गा पूजा की भव्यता बढ़ी है, किन्तु पूजा की आध्यात्मिक प्रेरणा और ऊर्जा से लोग लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं। दुर्गा मंडपों के आयोजक उस वातावरण को पैदा नहीं कर रहे हैं, जो देवी पूजन का होना चाहिए। बड़े-बड़े पंडाल बन रहे हैं, प्रसाद वितरण हो रहा है, लेकिन पूजा और आध्यात्मिक वातावरण गौण होता जा रहा है। जबकि आध्यात्मिक वातावरण मुख्य होना चाहिए। जो दुर्गा पूजा प्रेरित और आकृष्ट करती थी कि शक्ति का सामाजिक और आध्यात्मिक उपयोग होना चाहिए, वह भावना अब डगमगा रही है। परंतु अब शक्ति पूजा का तात्पर्य भव्य पूजा आयोजन, गरबा और डांडिया में रह गया है, जिनमें विकृतियां आई हैं। कार्यक्रम का स्वरूप तो बढ़ा, किन्तु विकृतियों ने सनातन अध्यात्म का गला घोट दिया।

पूजन करने वालों और करवाने वालों में बड़ी गिरावट आई है। शुद्धता समाप्त हो रही है। सच्ची और वास्तविक पूजा में लोग शक्ति नहीं लगा रहे हैं। शक्ति तभी सम्पूर्ण सुख देगी, जब हम सही मार्ग पर चलेंगे। शक्ति तभी सार्थक होती है, जब मार्ग सही होगा। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा, ‘मैं काम हूं।’ काम यानी भोग। भोग को ठीक से न समझने के कारण संसार में विकृतियां आ रही हैं। भोग की भावना सबमें होती है। भोग से आनंदाभूति करते रहें, सिर्फ यही की परिणति नहीं है। भोग की परिणति उसके धर्म से अविरुद्ध होने में है। यही कारण है कि श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘मैं शास्त्र रीति से सन्तान की उत्पत्ति हेतु काम हूं।’

समाज में कन्या या देवी का पूजन हो रहा है, किन्तु उस पूजन का आधार और ध्येय क्या है? कन्या पूजन को किस रूप में ग्रहण करना है, यह नहीं बतलाया जा रहा है। शक्ति पूजन का विनियोग विवेक के साथ किया जाए, तभी सुख होता है। कन्या पूजन से जो शक्ति मिलेगी, उसका विनियोग सही समय और सही माध्यम से होना चाहिए। देवी पूजन बढ़ रहा है, किन्तु जिस देवी पूजा के संस्कार ने स्त्रीत्व, मातृत्व और पुत्रित्व में भेद किया था, जो संयमित समाज बनाया था, वह अब नहीं है। शक्ति का विनियोग विलत्ता निर्माण एवं सृजन में होना चाहिए।