Sawan Somwar Vrat Katha: हिंदू धर्म में सावन का महीना बेहद पवित्र माना जाता है और इस दौरान पड़ने वाले हर सोमवार का विशेष महत्व होता है। सावन का पहला सोमवार व्रत 14 जुलाई को बीत चुका है। वहीं अब आज यानि 21 जुलाई को सावन का दूसरा सोमवार व्रत रखा जा रहा है। इस दिन भक्त भगवान शिव और माता पार्वती की विधिपूर्वक पूजा-अर्चना करेंगे और व्रत रखकर भगवान शिव का जलाभिषेक करेंगे। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन शिव-शक्ति की आराधना करने से जीवन में सुख, शांति और समृद्धि आती है। लेकिन ज्योतिष की मानें तो यह पूजा तभी पूर्ण माना जाता है जब सावन सोमवार व्रत कथा का श्रवण या पाठ किया जाए। ऐसे में यहां पढ़ें संपूर्ण पौराणिक व्रत कथा….
सावन सोमवार की व्रत कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, एक साहूकार हर दिन सूर्योदय से पहले उठकर गांव के शिव मंदिर में जल चढ़ाने जाया करता था। वह बेहद साधारण जीवन जीता था, लेकिन उसका शिवजी के प्रति अटूट विश्वास था। उसके घर में सब कुछ था, लेकिन संतान का सुख नहीं था। वह वर्षों से भगवान शिव से संतान प्राप्ति की प्रार्थना कर रहा था। एक दिन माता पार्वती ने शिवजी से कहा, ‘नाथ! यह भक्त प्रतिदिन आपकी भक्ति में लीन रहता है, बिना किसी दिखावे के, केवल श्रद्धा से। इसकी आंखों में मैंने वर्षों से एक ही प्रार्थना देखी है।’ भगवान शिव मुस्कुराए और बोले, ‘हे पार्वती, यह सत्य है कि यह मेरा प्रिय भक्त है, लेकिन इसके भाग्य में संतान सुख नहीं लिखा गया। यह उसी वियोग में दुखी रहता है।’
माता ने भोलेनाथ से किया आग्रह
माता पार्वती कहती हैं कि हे ईश्वर यह भक्त आपके प्रति समर्पित है, इसे पुत्र का वरदान दीजिए। तब भगवान शिव ने कहा कि ‘हे पार्वती, यह सत्य है कि यह भक्त अत्यंत श्रद्धालु है, परंतु इसके भाग्य में संतान योग नहीं है। और यदि मैं इसे पुत्र प्रदान भी करता हूं, तो वह केवल 12 वर्षों तक ही जीवित रहेगा।’ यह सुनने के बाद भी माता पार्वती ने कहा कि ‘हे प्रभु! यदि भक्ति निष्फल हो तो लोग ईश्वर से आस ही क्यों रखें? आपके नाम का स्मरण करने वाले को यदि कृपा न मिले तो फिर श्रद्धा व्यर्थ है।’ माता के विनम्र और बारंबार आग्रह को देखकर भोलेनाथ प्रसन्न हुए और बोले, ‘तथास्तु! इस साहूकार को पुत्र की प्राप्ति होगी, लेकिन वह बालक केवल बारह वर्ष तक ही जीवित रहेगा।’
पुत्र की केवल 12 वर्ष की ही आयु सीमा
साहूकार यह सब बातें मंदिर में छिपकर सुन चुका था, इसलिए उसे न तो खुशी हुई और न ही दु:ख। वह पहले की ही तरह प्रतिदिन मंदिर जाकर भगवान शिव की पूजा और सेवा करता रहा, जैसे कुछ हुआ ही न हो। कुछ समय बाद साहूकार की पत्नी गर्भवती हुई। पूरे घर में उत्सव का माहौल बन गया। नवें महीने में एक सुंदर, तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। पूरे परिवार में खूब हर्षोल्लास मनाया गया। लेकिन साहूकार शांत रहा, उसने किसी से भी बालक की 12 वर्ष की आयु की सीमा का जिक्र नहीं किया। वह जानता था कि यह वरदान ईश्वर की मर्जी से है, और जो होना है, वही होकर रहेगा। बस, उसने बालक का पालन-पोषण पूर्ण श्रद्धा और स्नेह से करना जारी रखा।
बालक को भेजा काशी
जब साहूकार का पुत्र 11 वर्ष का हो गया, तो एक दिन सेठानी ने उससे कहा, ‘अब बालक विवाह योग्य हो गया है, इसके लिए कोई योग्य कन्या देखनी चाहिए।’ लेकिन साहूकार ने शांत भाव से उत्तर दिया, ‘अभी नहीं, मैं इसे काशी पढ़ने के लिए भेजना चाहता हूं।’ इसके बाद उसने बालक के मामा जी को बुलाया और कहा, ‘इसे काशी ले जाओ, रास्ते में जहां भी रुकना हो वहां यज्ञ कराना और ब्राह्मणों को भोजन कराते हुए आगे बढ़ना। यही पुण्य ही इसे सुरक्षित रखेगा।’ मामा जी ने साहूकार की आज्ञा का पालन किया और भांजे को साथ लेकर यात्रा पर निकल पड़े। रास्ते में वे एक नगर पहुंचे जहां राजकुमारी का विवाह हो रहा था। वर पक्ष से आने वाला राजकुमार एक आंख से काना था। जब राजा की दृष्टि साहूकार के सुंदर, तेजस्वी पुत्र पर पड़ी, तो वह सोचने लगा कि ‘क्यों न इसी युवक को घोड़ी पर बैठाकर विवाह संपन्न करा दिया जाए।’ इस पर मामा राजी भी हो गए।
साहूकार के बेटे का विवाह
इसके बाद विवाह की सभी रस्में विधिपूर्वक पूरी हो गईं। जब विवाह कार्य संपन्न हो गए तो साहूकार का पुत्र जाने से पहले दूल्हा की चुंदरी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है, लेकिन जिस राजकुमार के साथ भेजेंगे वह तो एक आंख का काना है। इसके बाद वह अपने मामा के साथ काशी के लिए चला गया। उधर जब राजकुमारी ने विदाई से पहले अपनी चुनरी पर वह लिखा हुआ वाक्य पढ़ा, तो वह स्तब्ध रह गई और उसने अपने पिता से कहा कि वह एक आंख वाले राजकुमार के साथ नहीं जाएगी, क्योंकि उसका विवाह किसी और से हुआ है। राजा भी अब सच्चाई को समझ गए और उन्होंने अपनी पुत्री को बारात के साथ विदा करने से इनकार कर दिया। इस प्रकार बारात बिना दुल्हन के लौट गई। इधर, साहूकार का पुत्र और मामा काशी जी पहुंच चुके थे।
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