अमृता पांडे

प्राकृतिक विविधताओं से भरे उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में लोक पर्वों की बहुलता है। साल भर कोई न कोई लोक पर्व यहां पर मनाया जाता है। आज जब सांस्कृतिक चेतना शून्य होती जा रही है तो ये लोक पर्व अपने ऐतिहासिक महत्त्व के साथ अपनी लोकप्रियता को बनाए हुए हैं। सितंबर यानी भाद्रपद के महीने में मनाया जाने वाला एक महत्त्वपूर्ण लोकोत्सव है नंदा देवी मेला। यह पर्व भाद्र मास शुक्ल पक्ष अष्टमी को सम्पन्न होता है। इस बार यह लोकपर्व 22 से 24 सितंबर के बीच मनाया जाएगा। नंदा देवी महोत्सव के रूप में लोकप्रिय यह त्योहार नंदा सुनंदा को समर्पित है, जो खुशी की देवी मानी जाती हैं और स्थानीय लोगों की संरक्षक देवी भी हैं।

नंदा देवी उत्सव के दौरान मां नंदा सुनंदा की मनमोहक प्रतिमाएं बनाई जाती हैं

नंदा सुनंदा दो बहने हैं जिन्हें नयना और सुनयना नाम से भी पुकारा जाता है। चैत्र के महीने में मनाया जाने वाला भिटौली पर्व भी कहीं ना कहीं नंदा सुनंदा से ही जुड़ा है क्योंकि इस क्षेत्र के लोग उनसे बेटी बहन का नाता रखते हैं। नंदा देवी उत्सव के दौरान मां नंदा सुनंदा की मनमोहक प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। इन्हें बनाने के लिए केले के पेड़ का इस्तेमाल किया जाता है। वृक्ष की चयन प्रक्रिया भी रोचक है। कदली यानी केले के वृक्ष से नंदा सुनंदा की प्रतिमाओं के आवरण बनाए जाते हैं। केले के बाग में जाकर पूजा अर्चना की जाती है और अभिमंत्रित अक्षत (चावलों) कदली वृक्षों की ओर उछालते हैं, इस प्रक्रिया में जो वृक्ष हिलता है, वही मां नंदा सुनंदा की प्रतिमा में सजने का सौभाग्य पाता है।

1710 में राजा जगत चंद ने मां नंदा की 200 स्वर्ण मुद्राओं से प्रतिमा बनाई थी

बताते हैं कि सन् 1617 में तत्कालीन शासक बाज बहादुर चंद गढ़वाल के जूनियागढ़ किले को जीतकर नंदा की अल्मोड़ा प्रतिमा लाए थे और बाजार स्थित मल्ला महल में मंदिर बनवाकर उसे वहां स्थापित किया। इससे पूर्व वहां पर केवल सुनंदा की अर्चना की जाती थी। हालांकि मूर्ति की धातु को लेकर अलग-अलग मत है। फिर 1699 में राजा ज्ञानचंद गढ़वाल के बधानकोट से मां नंदा की स्वर्ण प्रतिमा अल्मोड़ा लाए। 1710 में राजा जगत चंद ने मां नंदा की 200 स्वर्ण मुद्राओं से प्रतिमा बनाकर नंदा देवी मंदिर में स्थापित की।

1816 में अंग्रेजों और गोरखाओं के संघर्ष में मल्ला महल नष्ट हो गया

1816 में अंग्रेजों और गोरखाओं के संघर्ष में मल्ला महल नष्ट होने के साथ-साथ मंदिर भी लड़ाई की भेंट चढ़ गया और रामशिला मंदिर स्थित मां नंदा की मूर्ति को उसके मूल स्थान से स्थांतरित कर दूसरी जगह पहुंचा दिया गया था जो स्थान आज नंदा देवी परिसर कहलाता है। वर्तमान में मंदिर में तीन देवालय हैं। बाईं ओर पार्वतेश्वर मंदिर, बीच में उद्योतचंदेश्वर और और जिस मंदिर में नंदा विराजमान हैं उसे नंदा देवी मंदिर कहते हैं। चंद्रवंशीय राजा उद्योत चंद ने अल्मोड़ा में चार मंदिर बनवाए।

ये क्रमश: विष्णु देवाल, त्रिपुरा सुंदरी, उद्योतचंदेश्वर और पार्वतेश्वर हैं। उद्योतचंद्र मंदिर नागर शैली का प्रतीक है, जिसमें वेदीबंध, त्रिरथ युक्त जघाभाग, चार भूमि आमलकों से विभाजित रेखा शिखर, ग्रीबा बनाए गए हैं। स्तंभों के काष्टछत्र द्वारा इसमें गज, सिंह की प्रतिमा, शुकनास के रूप में स्थापित है। पट्टियों में भी शेर द्वारा हिरन के आखेट, नाग, मिथुन, मीन, पक्षी, मानव,आमोद प्रमोद के दृश्य, सुरा दरबार, हाथियों के युद्ध के दृश्य अंकित हैं। ब्रह्मा, विष्णु और उमा महेश का भी अंकन इन पत्थरों में है। यह मंदिर उत्तर पूर्व कोने में है और इसका द्वार पश्चिम दिशा में है।

मल्ला महल स्थित रामशिला मंदिर भी नगर वासियों की आस्था का केंद्र है। ड्योढ़ी पोखर से शुरू होकर यह यात्रा दुगाल नौले में विसर्जन के साथ संपन्न होती है। ठीक इसी तरह नैनीताल में पाषाण देवी के पास झील में प्रतिमाओं को विसर्जित किया जाता है। नैना देवी मंदिर, नैनी झील के किनारे, माल रोड पर पेड़ों और बाजार में इमारतों पर सजावटी रोशनी लगाई जाती हैं।

अल्मोड़ा में भी नंदा देवी प्रांगण में सजावट की जाती है और मेला लगता है। हिमालय की नंदा और सुनंदा चोटियों का प्रतिनिधित्व करने वाली जुड़वां देवियों नंदा और सुनंदा की पूजा करने के लिए भक्त सुबह से ही नंदा देवी मंदिर में पहुंचने लगते हैं , जिनकी मूर्तियों को मंदिर परिसर में केले के तने में स्थापित किया जाता है। उत्सव के आखिरी दिन मूर्तियों को डोला (पालकी) में लेकर एक धार्मिक जुलूस निकाला जाता है।

शक्ति रुपी नंदा की पूजा पूरे हिमालय क्षेत्र में होती है। यह मेला अपनी संपन्न प्राचीन विरासत लिए हुए हैं। स्कंद पुराण के मानस ग्रंथ में इस बात का वर्णन मिलता है कि नंदा पर्वत की चोटी पर नंदा देवी का निवास स्थान है। नंदा गढ़वाल के परमार वंश, कुमाऊं के कत्यूर और चंद्र वंश की कुलदेवी मानी जाती है। पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता यह अलौकिक त्योहार देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी अपनी पहचान बना रहा है। ये सच है कि बिना नंदा देवी सरीखे मेलों को देखे और जाने अल्मोड़ा शहर की सांस्कृतिक विरासत को समझना आसान नहीं है।