शास्त्री कोसलेंद्रदास
इसकी दयाशीलता, उदार भावना एवं आत्मनिग्रह की भावना के विचार वास्तविक हैं। वैदिक परंपरा में शांतिपूर्ण ढंग से समाज सुधार के आंदोलन चलते रहे हैं। इसी वैचारिक विशालता एवं उदारता की ओर संसार का चित्त आकृष्ट करने के लिए सात शताब्दियों पहले चले भक्ति आंदोलन के केंद्र में स्वामी रामानंदाचार्य हैं। स्वामी रामानंद ने धार्मिक विश्वासों एवं पूजा-उपासना के प्रति सामान्य हिन्दुओं के हृदय में भक्ति की ऐसी अलख जगाई, जो आज भी चमक रही है।
रामानंदाचार्य ने काशी के श्रीमठ से राम भक्ति के प्रसार का शंखनाद किया। उनकी शिष्य परंपरा में महात्मा अनंतानंद, कबीर, रविदास, धन्ना जाट, सैना और भक्त पीपा जैसी अनेक आध्यात्मिक विभूतियां हैं। 1299 ईस्वी में तीर्थराज प्रयागराज में जन्मे स्वामी रामानंद की 724वीं जयंती इस वर्ष 14 जनवरी को मनाई गई है।
शताब्दियों पहले बनारस के एक मुसलिम जुलाहे कबीर को गुरु की तलाश थी। उन्हें पता था कि गुरु के बिना सफलता नहीं मिल सकेगी। उनके मन में स्वामी रामानंद को गुरु बनाने की इच्छा थी। तब रामानंद बनारस ही नहीं बल्कि देश-दुनिया में पहचाने जाते थे। उनका आध्यात्मिक तथा सामाजिक दायरा विशाल और जात-पात से परे था। कबीर जानते थे कि आचार्य रामानंद अलसुबह स्रान करने श्रीमठ से पंचगंगा घाट पर उतरते हैं।
कबीर सीढ़ियों पर उस जगह लेट गए, जहां से रामानंद गुजरते थे। स्रान के लिए गंगा घाट पर उतरे स्वामी रामानंद का पांव अकस्मात कबीर पर पड़ा। बहुत अफसोस और अपराधबोध के साथ अंधेरे में रामानंद ने झुककर कबीर को उठाया और कहा, ह्यराम-राम बोलो, तुम्हारा दुख दूर होगा। बस कबीर को राम मंत्र मिल गया। उन्हें गुरु मिल गए और कबीर की ह्यचदरिया झीनी-झीनी हो गई।
गोविंद से बड़े गुरु –
महात्मा कबीर की भक्ति संवेदना में गुरु का स्थान गोविंद से भी बड़ा है। इसीलिए कबीर जब कभी अपने गुरु रामानंद का नाम लेते हैं तो वे उनका नाम बड़े गौरव और श्रद्धा से लेते हैं- कहै कबीर दुविधा मिटी गुरु मिल्या रामानंद। सत्रहवीं सदी में हुए इतिहासकार मुहसिन फनी ने अपनी पुस्तक दबिस्तां-ए-मजाहिब में लिखा है-कबीर जन्म से मुसलमान थे पर वे स्वामी रामानंद के शिष्य बनना चाहते थे क्योंकि रामानंद राम को जानते थे।
हरि को भजै सो हरि का होई
स्वामी रामानंद ऐसे अद्भुत गुरु थे, जिन्होंने जातियों और वर्गों में बंटे हिंदू समाज में वह महत्त्वपूर्ण उद् घोष किया, जिसकी आज भी जरूरत है। उनकी अप्रतिम घोषणा है – जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजै से हरि का होई।
वर्ग और वर्ण का भेद नहीं
स्वामी रामानंद की 12 शिष्यों की मंडली में कपड़े बुनने वाले बुनकर कबीर ही नहीं थे बल्कि उसमें संत रविदास भी शामिल थे, जो चमड़े का काम करते थे और काशी की गलियों में जूते सिलते थे। वहांं एक भक्त धन्ना जाट थे, वहीं दूसरे थे संत सेन नाई, जो लोगों के बाल बनाते थे। उनके शिष्य भक्त पीपा ने गागरौन गढ़ का राजा होने के बाद भी दर्जी की आजीविका को अपना लिया था।
जन्म सत्ता नहीं, व्यक्ति सत्ता
सदन कसाई, कूबा कुम्हार और भक्तमाल के रचयिता नाभादास समेत अनेक संत-भक्त-कवि आचार्य रामानंद के चलाए संप्रदाय के हिस्से हैं। रामानंद ने जन्म सत्ता की बजाय व्यक्ति सत्ता को महत्त्व दिया। भेदभाव को न मानने वाला भारतीय संविधान तो आठ दशकों पहले बना, पर स्वामी रामानंद ने यह नींव 14वीं सदी में ही रख दी थी। उन्होंने अपने प्रवचन और लेखन का आधार संस्कृत के साथ देशज भाषाओं को भी बनाया। उनके कुछ पद्य सिखों के पवित्र गुरुग्रंथसाहिब में संकलित हैं।
रामानंद का आनंद मठ है श्रीमठ
आचार्य रामानंद का श्रीमठ आज भी काशी में मौजूद है। श्रीमठ में उनकी चरण पादुकाएं स्थापित हैं। अनेक संत परंपराएं आचार्य रामानंद के श्रीमठ से निकलीं। दादू, रामस्रेही, वारकरी, घीसा पंथ, कबीर पंथ और रैदास पंथ जैसी ढेर सारी भक्ति परंपराओं का मूल उद्गम श्रीमठ है। हिंदी साहित्य के अमर ग्रंथ रामचरितमानस के लेखक गोस्वामी तुलसीदास भी स्वामी रामानंद के प्रिय शिष्य थे।
काशी में गंगा किनारे बना श्रीमठ शताब्दियों से निर्गुण तथा सगुण रामभक्ति परंपरा का मूल केंद्र है। कालांतर में इसकी हर शाखा ने वृक्ष का रूप ले लिया और मूल मरता चला गया। जिस बात पर विवाद है वह यह है कि श्रीमठ को कब व किसने बनाया? कुछ इसे रामानंद स्वामी का बनाया मानते हैं तो कुछ उनके गुरु स्वामी राघवानंद का बनाया बताते हैं। जिस बात पर कोई विवाद नहीं है, वह यह है कि श्रीमठ मध्यकालीन भक्ति आंदोलन को सबसे बड़ा केंद्र था।
सामाजिक समावेशी है श्रीमठ
आचार्य रामानंद का चलाया हुआ संप्रदाय जातीय आधार पर टूट रहे समाज के बीच एक अकाट्य सत्य है। इस संप्रदाय में छुआछूत और खान-पान में कोई भेदभाव नहीं है। यह संप्रदाय समाज को एक सूत्र में बांधने का धागा है, जो जातीय वैमनस्यता की रामबाण औषधि है। स्वामी भगवदाचार्य के जमाने में महात्मा गांधी ने श्रीमठ को सामाजिक समावेशी मठ की संज्ञा दी थी।
रामानंद का वह विशाल श्रीमठ अब काशी में बहुत थोड़ा-सा रह गया है। आश्चर्य कि बात है कि स्वामी रामानंद का वह विशाल श्रीमठ, जहां हजारों फकीर, सैकड़ों जंगम-जोगड़े, नाथपंथी, वैरागी और संन्यासी रहा करते थे, वहां अब लोगों के घर हैं, तरह-तरह के पड़ाव हैं, मस्जिदें हैं, दुकानें हैं और लोगों के घर हैं। काशी में श्रीमठ के नाम से बहुत जरा-सी पुण्य भूमि बची हुई है, जहां अभी स्वामी रामनरेशाचार्य रहते हैं।
जिस तत्परता और आसानी से रामानंदाचार्य ने अपने समय में धर्म और धार्मिक चेतना से उस समय के समाज की विसंगतियां दूर कीं, उसकी आज जरूरत है। मानवता को आधार बनाकर नकारात्मक विचारों के विरुद्ध एक आंदोलन खड़ा करने की जरूरत है। आवश्यकता है एक भाषा, एक मनोवृत्ति और एक प्रतिबद्धता की, जो परस्पर विरोधी धाराओं को इकट्ठा कर उन्हें स्वामी रामानंदाचार्य की तरह रामभक्ति के महासागर में समेट सके।