Premanand Govind Sharan Ji Maharaj Bhajan Marg: शास्त्रों में हनुमान जी को बल, बुद्धि, विवेक के दाता माना जाता है। इसके साथ ही उनकी पूजा-अर्चना करने से बुरी शक्तियों, भूत-प्रेत बाधा, नजर दोष से रक्षा होती है। इसके साथ ही कुंडली में शनि और मंगल की स्थिति मजबूत होती है। हनुमान जी की पूजा करने मात्र से जातक के हर एक दुख-दर्द दूर हो जाते हैं। हर मंगलवार और शनिवार के दिन हनुमान जी की पूजा करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है। लेकिन जब बात महिलाओं के हनुमान जी की पूजा करने की बात आती है, तो कई लोगों की धारणाएं है कि हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी है। इसलिए महिलाओं को न ही उन्हें स्पर्श करना चाहिए और न ही उनकी सेवा करना चाहिए। ऐसे ही एक सवाल एक महिला ने एकांतिक वार्तालाप में प्रेमानंद महाराज जी से पूछा। महिला मे महाराज जी से कहा कि मैने हनुमान जी को अपना भाई माना, बचपन से माना था, फिर अभी बड़े होकर किसी ने बताया कि स्त्री साधक हनुमान जी की भक्ति नहीं कर सकते, उनको स्पर्श नहीं कर सकते। बड़े छोटे से हनुमान जी को साथ लेकर घूमते हैं। आइए जानते हैं प्रेमानंद महाराज से क्या उत्तर दिया…
प्रेमानंद जी महाराज ने कहा कि देखो, यह सब अलग बातें हैं, व्यवहार की हैं। हनुमान जी की मैया थी ना? ये केवल बात सिद्धि के लिए की जाती है कि जब हनुमान जी को शक्ति के रूप में पूजा जाता है, तब वहां नियम-कानून लगते हैं। अभी आप मान लो हनुमान जी मेरे लाला हैं, कोई रोक पाएगा क्या? मेरे लाला हैं, मेरा छोटा पुत्र है, मेरा भाई है, मेरे जो भाव हैं। देखो, हनुमान जी कोई और नहीं, प्रभु ही तो हैं।
तो मुझे इन सब बातों में नहीं जाना कि स्त्री को क्या करना चाहिए। देखो भैया, स्त्री और पुरुष की पोशाक पहने हो आप। ना आप स्त्री हो, ना आप पुरुष हो। सच्चाई से समझो — ना थे, ना रहोगे। बीच में पोशाक मिली है। सरकारी पोशाक नहीं बदलती। आपको ड्यूटी जाना है, तो आपकी पोशाक ये है। आप भारत की फौज में हो, लेकिन अलग-अलग हैं: वायुयान, जल, नेवी, थल, आर्मी आदि सबकी पोशाक अलग। पुलिस की अलग। लेकिन हैं सब कौन? भारतीय।
हम सब कौन? भगवद अंश हैं। ये पोशाक मिली, हम आराधना भगवान की कर सकते हैं। देखो, समझो ना। कोई स्त्री है, ना कोई पुरुष है। हम सब भगवान के अंश हैं और अंश एक जैसे हैं। उसमें छोटा-बड़ा, गंदा-पवित्र यह सब नहीं है। समान अंश हैं। भगवान सम हैं ना, तो उनका अंश भी सम है। एक श्लोक आता है उपनिषदों में — “पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।” उस पूर्ण परमात्मा से अगर अंश निकाला जाए तो क्या बचेगा? पूर्ण! वह पूर्ण ही अंश होता है। तो हम सब परमात्मा के अंश हैं।
अगर हनुमान जी से ऐसी प्रीति है, तो प्रीति और सिद्धि में अंतर होता है, ध्यान रखना। जैसे जगदंबा हैं हमारी अम्मा हैं। अम्मा हैं, तो अब कौन सा नियम लागू होगा? और अगर आद्या शक्ति भगवती जगदंबा को वश में करना है, सिद्धि पानी है, तो वहाँ नियम-कानून से चलो, नहीं तो नष्ट हो जाओगे। समझ गए? अम्मा तो अम्मा हैं, उनकी गोद में बालक जैसे मल-मूत्र करें तो अम्मा कोई दंड देती हैं क्या?
“कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।” ऐसे ही हमारे सब प्रभु के लिए। देखो, बाल ब्रह्मचारी हनुमान जी अंजनी के लिए क्या हैं? पुत्र ही तो हैं ना! अंजनी के पास जब जाएंगे तो अंजनी क्या करेंगी? लाला को दुलारेंगी ना। बस, हनुमान जी हमारे लाला हैं, हमारे भाई हैं, हमारे पुत्र हैं। अपने भाव में रहो। सबको बताने की जरूरत नहीं है। सबको सुनाने की जरूरत नहीं है।
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महान भक्त हैं। हमारे सामने हनुमान जी जैसा कोई भक्त नहीं, भगवान का सेवक नहीं। और हम उनको इस भाव से भज रहे हैं, भला कहीं अमंगल हो सकता है? नियम-कानून लगते हैं पदवी पर। हम उनसे कोई चाह नहीं कर रहे कि आप हमारे अधीन हो जाएं। मैं बोलूं , “ओ हनुमान जी, मुझे सिद्धियाँ दो!” जैसे सिद्धियाँ ग्रहण करना, देवी शक्तियों को अधीन करना। बोले दुर्गा देवी इन्हें सिद्ध हैं, कात्यायनी इन्हें सिद्ध हैं । वो एक अलग क्षेत्र हो गया। और यह अलग क्षेत्र हो गया।
अगर आप इस क्षेत्र में भाव से भज रही हैं, तो कोई स्त्री नहीं, कोई पुरुष नहीं। भगवान का अंश हैं। अपने लाड़ले को दुलार करना सबका अधिकार है। खूब भक्ति करिए। कुछ जो अनसुनी भी करनी चाहिए। महाराज जी गंगा में थे ना, काशी में पंचकोशी कर रही थी , तो पंचम स्नान पर एक स्त्री ने बोल दिया ना कि “छूते नहीं हैं।” तो इन्होंने बाल रूप ले लिया। मैंने मार्गदर्शन यही करवाया।
देखो भाई, हम आपको यह नहीं कहते कि आप मंगलवार को बंधनवार लेकर हनुमान जी के मंदिर जाएं और वहां चढ़ाएं। हम यह नहीं कह रहे कि आप उन सिद्धियों की जैसे प्राप्ति की जाती है, वैसा करें। हमारे लाला हैं, खिला-पिलाइए, दुलार कीजिए। देखो, हनुमान जी राजी हो जाते हैं। इनको रामचरित्र अच्छा लगता है। भगवान की चर्चा सुनाओ, इनको सियाराम नाम कीर्तन सुनाओ, अपने भाव से मगन रहो।
अगर सबकी सुनोगे तो पागल हो जाओगे। कोई तो कुछ कहेगा। कोई कहेगा तुम कंठी बांधे हो, सुभागवती हो कि कंठी बांधे हो? यह तो विधवाएं बांधती हैं! किसी ऐसे माता-बहन को कहेंगे तुम तिलक लगाए हो, सुभागवती हो कि तिलक लगाए हो? अब क्या उत्तर दोगी उनको?
असली सुहाग तो यही है, जो माताएं मंगलसूत्र जैसे धारण करती हैं, वैसे ही कंठी हमारे लिए हरि की प्रति मंगलसूत्र है। तिलक ये जो सुहाग भरे हैं, हम हरि के हैं।
अब यह बातें अध्यात्म और भाव की। जगत में जो व्यवहार में हैं, वह नहीं समझेंगे, नहीं मानेंगे। हमें उनकी बात नहीं सुननी। हमें अपने भाव से चलना है।
प्रेमानंद महाराज ने सुनाई अद्भुत कथा
कर्माबाई जी रोज खिचड़ी बनाकर जगन्नाथ जी को अपने हाथ से पहला काम करती थीं उठकर खिचड़ी बनाना और प्रभु को भोग लगाना। एक दिन सुबह स्नान करने जा रही थीं, सूर्य उदय हो गया था। तो एक संत भगवान मिले। उन्होंने कहा, “करमा भाई, सूर्य उदय हो गया। तुम भगत हो, अब स्नान करने जा रही हो? जल्दी जगा करो!” तो उनका जग तो बहुत जल्दी हो गया था, पर वह खिचड़ी बनाई, ठाकुर जी को भोग लगाया और फिर स्नान किया।
संत बोले, “अरे कितना बड़ा अपराध कर रही हो! तुम ठाकुर जी को बिना स्नान किए भोग बना रही हो?” तो अच्छा महाराज, पहले स्नान, फिर तिलक, फिर नियम… खिचड़ी बनाई, लगभग सुबह होने जा रही थी। बुलाया ठाकुर जी को, एक कवल पाया। उधर पर्दा हटने वाला था — अंतरध्यान होकर प्रभु वहां पहुंच गए। खिचड़ी लगी थी मुख में!
उन्होंने कहा — “जय जय! अभी तो पर्दा खुला है, भोग तो पधरा नहीं, आपके मुख में?”
तो वह संत जो नियम कानून वाला था। उसने समझाया हमारी करमा भाई को। अब वो स्नान आदि करके विलंब करके गईं। वैसे मैं रोज जाता था पाता, तो आज एक ही कवल पाया और भाग आया। आचमन भी नहीं कर पाए।
तो तुम ऐसा है, उन माता जी को बता दो जाकर, “जो जैसी भावना से चलता है, मैं वैसे ही मिलता हूं।”
यह था — “ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्।”
वो संत जी अपनी भावना से, नियम से चले। उनसे कह दो — “सुबह जैसे करती थी, वैसे करके मुझे भोग लगाएं।”
समझ रहे हो ना? अपने प्रभु हैं, अपने लाड़ले। हमको इस जन्म में भगवत प्राप्ति करनी है। भक्त का चरण आश्रय लेकर, भगवान का चरण आश्रय — ये दो ही प्रकार हैं जिनसे भगवान की प्राप्ति होती है।
तो आप चाहे प्रभु मान लो, चाहे महान भक्त मान लो, चाहे उनको अपना पुत्र मान लो। जब भगवान को पुत्र माना, तो देखो, अखिल लोकों का पिता नंद भवन में घुटनों के बल चल रहा है!
है नहीं? अयोध्या नरेश महाराज चक्रवर्ती सम्राट दशरथ जी के आंगन में रुंझुन-रुंझुन करते हुए डोला कौन? अखिल लोकों का माता-पिता स्वयं वह हैं।
तो हमें लगता है कि यदि हमारी आसक्ति है और हम भावपूर्वक कर रहे हैं, तो हम किसी ब्रह्मचारी की सेवा नहीं कर रहे, किसी सिद्धि प्राप्ति के लिए नहीं कर रहे। हम अपने पुत्र की कर रहे हैं, हम अपने प्रभु की कर रहे हैं, हम अपने लाड़ले की कर रहे हैं।
कहीं कुछ बिगड़ने वाला नहीं। भाव से करो। यह शरीर वास्तविक नहीं है, उपासना वास्तविक है। यह आज है, कल नहीं रहेगा। आप अपने अंदर से भाव हटाओ कि मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष हूं। अभी शुद्ध अध्यात्म जागृत करो। पर यह साधारण बातें नहीं हैं।
प्रभु राम के साथ तो होगी ही न हनुमान जी की पूजा
साधारण लोगों की बातें सुनोगे, तो फिर यही सब बातें आएंगी। अपने को उपासना करनी है। आप भाव से रहो। जहां हनुमान जी हैं, वहां सियाराम जी हैं। क्योंकि बिना हनुमान जी, सियाराम के रह सकते हैं क्या?
तो जब भोग लगाओ, तो वही भाव करो — सियाराम जी विराजमान।
अच्छा मान लो कोई कह रहा है कि हनुमान जी को स्त्री की सेवा नहीं करनी, तो सियाराम जी की करनी चाहिए। हां करनी चाहिए। तो हनुमान जी कहां बैठे हैं? उनके चरणों में बैठे हैं ना! है ना!
तो भोग लगेगा, तो हनुमान जी को हटा दोगी क्या? स्नान कराओगी, तो हनुमान जी को हटा दोगी क्या? वो तो पूरी छवि में वही बैठे हैं। छवि हो या राम दरबार हो, जहां राम दरबार । वहां बैठे महाराज हनुमान जी चरणों के पास।
तो समझो, ऐसा कहीं हो सकता है क्या?
तो इसलिए, हां… हम यह नहीं कहते कि आप बंधनवार लेकर जाओ और हनुमान जी के मंदिर में जाकर बंधन लगाओ। हम ऐसा नहीं कहते। हम अपने भाव की बात करते हैं। वहां सिद्धांत की बात आएगी, तो वह अलग क्षेत्र है। सिद्धांत, नियम, कानून एक अलग है। और प्रेम का कानून अलग है।
प्रेम का एक स्वतंत्र कानून होता है। और वह कोई कानून मानता ही नहीं। न लाज तीन लोकों की, न वेद को, न शक, न भूत, न प्रेत, न देव, न यक्ष। प्रेम का एक अपना प्रभाव होता है।इसलिए, ऐसे भाव से चलिए।