Premanand Govind Sharan Ji Maharaj Bhajan Marg: सावन हो या फिर सोमवार भगवान शिव की आराधना करना काफी शुभ माना जाता है। इस दिनों मेंविधिवत पूजा करने के साथ-साथ रोजाना शिव के पंचाक्षरी मंत्र ”ऊं नम: शिवाय’ का जाप करते हैं। भोलेनाथ का ये मंत्र सबसे ज्यादा शक्तिशाली माना जाता है। अधिकतर लोग इस मंत्र का जाप करते हैं। लेकिन आपको क्या पता है कि इस मंत्र का जाप बिना गुरु मंत्र के नहीं किया जा सकता है। प्रेमानंद महाराज से एकादंतिक वार्तालाप पर एक व्यक्ति को बताया है कि इस पंचाक्षरी मंत्र का जाप करने से नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। आइए जानते हैं अगर गुरु मंत्र नहीं है, तो फिर शिव जी के किस मंत्र का जाप करना शुभ होगा…
प्रेमानंद महाराज ने एकांतिक वार्तालाप में एक व्यक्ति से पूछा कि आपको कौन सा नाम भगवान का प्रिय है। सामने से व्यक्ति कहता है कि शंकर भगवान, शंकर जी। तो कैसे जपोगे शंकर जी का नाम? ऊं नमः शिवाय? इस पर प्रेमानंद महाराज की कहते हैं कि ऊं नम शिवाय: – ये तो गुरु मंत्र लेने पर ही जपा जा सकता है। नहीं तो ये फिर और नेगेटिव भाव को और पुष्ट कर देगा, क्योंकि मंत्र वैदिक मंत्र गुरु पद्धति से ही जपना चाहिए। ऐसे मनमानी नहीं जपना चाहिए जैसे आजकल लोग करते हैं। ऐसे नहीं। तो अगर शंकर जी का नाम जपना है तो “साम सदाशिव”, “सांब सदाशिव” जप सकते हो। आप जपूं? बोलो क्या? अभी जो हमने बोला एक बार फिर बोले महाराज? अच्छा, इतने में तो पकड़ लेना चाहिए आपको।
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सांब सदाशिव, सांब सदाशिव, सांब, सांब, सांब, सांब सदाशिव, सदाशिव, सदाशिव, सदाशिव और सांब, सांब सदाशिव, सांब सदाशिव .. सदाशिव, सांब सदाशिव.. भगवान शिव और अंबा जगदंबा पार्वती के सहित भगवान शिव। सांब सदाशिव, सांब सदाशिव, सांब सदाशिव। आप पकड़ लें। एक बार फिर बोलो सांब सदा, सांब, सांब सदाशिव, सदाशिव। तो आपको पता है सदाशिव, सांब, सांब सदाशिव, सदाशिव। आप इसको जपिएगा, उठते-बैठते, चलते-फिरते, नहा के, बिना नहाए, कैसे भी स्थिति में।
अगर गुरु न मिले, तो कैसे करें मंत्र का जाप?
अगर आपको कोई गुरु नहीं मिल रहा है और दुविधा है कि कैसे मंत्र का जाप करें, तो प्रेमानंद महाराज जी कहते हैं कि पहला जब तक गुरुदेव ना मिले तब तक भगवान का कोई नाम चयन करो। जपते हो नाम जो नाम जपते हो उसे निरंतरता में लाओ। बताने की जरुरत नहीं है पर यह बिना गुरु के काम नहीं करेगा। ये जो द्वादशा अक्षर मंत्र है, पंचाक्षर मंत्र है, अष्टदशा आक्ष मंत्र है, यह गुरु प्रदत्त होने चाहिए। आप हमारी बात मानना हम आपके मित्रवत प्रार्थना कर रहे हैं, तो ऐसे गुरु का चयन करो और अभी नाम जप करो। जैसे वासुदेव का ही मंत्र है तो कृष्ण कृष्ण कृष्ण या राधा कृष्ण जो आपको प्रिय लगे नाम जप करो। अभी मंत्र नहीं, जब गुरुदेव मिले तब मंत्र जप करो तो सही अनुभूति होनी शुरू हो जाएगी। हमें तो सबसे यही कहना कि बिना गुरु कृपा के भव बंधन से मुक्त होना असंभव, असंभव।
ठीक है महाराज जी आपने बोला कि गुरु प्रदत्त जैसे इन्होंने जो मंत्र बोला तो वो उसमें क्या फर्क है? जैसे इन्होंने पढ़ लिया, उससे जप रहे हैं और गुरु प्रदत्त जपने में अनुभूति नहीं होगा, प्रकाश नहीं होगा। उसका प्रकाश नहीं होगा। जो मंत्र का प्रकाश नहीं हो सकता। इसलिए भगवान भी संदीपनी जी को गुरु माने। राम जी के भी कुल गुरु वशिष्ठ जी थे और शिक्षा दीक्षा के गुरु विश्वामित्र जी बने। ना जाके श्वास वेद सुतिचारी। उनको गुरु बनाने की जरूरत है। भगवान को गुरु बनाने की जरूरत है। बनाया ना, हर विषय का गुरु बनाया। फिर हमें, मनुष्य है ना, मर्यादा है। अनुभव ही नहीं होगा।
आप देखो गीता जी भगवान ऐसे शुरू कर दिए जब अर्जुन जी नित्य सखा है भगवान के, खूब हंसी मजाक होती, खूब घर के हैं। वैसे भी बुआ के लड़का है और वैसे भी मित्र है और वैसे भी नर नारायण के अवतार हैं। गीता जी कब शुरू की? जब “शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्” बोले। मूल चित्त वाला कायरता रूपी दोष से युक्त हो गया हूं। क्या मेरा कल्याण है, किसमें यह मैं निश्चित नहीं कर पा रहा हूं। आप निश्चित करो, मैं आपका शिष्य हूं, आपकी शरण में हूं। यहां से गीता जी प्रारंभ होती है।
महाराज जी आप जैसे कह रहे हैं वो तो परम सत्य बात ही है, हम उसको तत्काल ग्रहण करें तो उसमें कल्याण निश्चित है। बट महाराज जी इसमें कहीं ना कहीं अधीनता भी एक बहुत समझ आ रही है कि वो अहम जो प्रकाशित होने वाला, जो बाधक तत्व है अहम, वो केवल और केवल गुरु कृपा से ही नष्ट होगा। हां। नहीं इसमें गुरु वाक्यम भी है। मंत्र मूलम गुरु वाक्यम। आप समझो हमारा शास्त्र जो कह रहा है। जैसे आप ऐसे राम राम जप रहे हो, और जब गुरु के मुख से निकला कि राम कहो, आप देख लेना अगर यही मंत्र गुरु से मिले, फिर आप जपना, तब आप हमको बताना कि फर्क क्या था। आप देखना गुरु कृपा ही, मतलब आप जहां बैठे हो, यहां सब गुरु प्रसाद ही है, गुरु कृपा ही है। तो हम तो पूरा का पूरा गुरु कृपा से, बचपन से लेकर अभी तक तो हमारे तो जीवन में गुरु कृपा है। आप सब संत जन बता सकते हो कि बिना गुरु कृपा के कुछ है?
तो मुझे तो ऐसा लगता है कि गुरु की शरण लेना… अब जैसे यह बता दे कोई कि आप किसी ब्रह्म ज्ञानी महापुरुष को, अव्यक्त को गुरु मान लो। तो देखो हमको ऐसा गुरु चाहिए जो हमें दुलार भी दे, हमें डांट भी सके। अब बिल्कुल बिल्कुल आप सही हो। वो ऊपर से डांट सभा में लगाए, आप ऐसे बैठे, जय जय जय जय, आज तो अपार कृपा हमारे ऊपर, तो अहंकार गलित हो गया। हमने तो कोई गलती नहीं की, हमने तो अपनी अनुभूतियां बतानी चाहिए, वो अभी बाकाया पूरा कारा बया। तो कभी कभी प्रकट में गुरुजन ऐसी प्रतिकूलता रूपी औषधि मारते कि छार छार अहंकार हो जाए। वो गुरु से ही होगा।
बस मंत्र मूलम गुरु वाक्यम। वो क्या कह रहे हैं, बस हमें चुपचाप प्रश्न नहीं करना, गुरु के वचन जैसे निकले वैसे वैसे। अगर वो कह दी ना, खड़े रहो तो खड़े हो। शरणागति, ये उनकी कृपा से आएगी। नहीं बहुत जोर की शरणागति है कि आपको जो पसंद है वही मैं बात कहूंगा, वही आचरण करूंगा। अगर आप दिन को रात कहेंगे तो मैं अपनी आंखों को झूठा मानूंगा कि गुरुदेव कह रहे हैं रात है, मुझे दिन दिखाई दे रहा, मेरी आंखें झूठी हैं, गुरुदेव झूठे नहीं। गुरुदेव की बात सत्य है। ऐसे शरणागति जब आ जाती तो ब्रह्म बोध अपने आप हो जाता है क्योंकि कभी ग्रंथि पड़ी ही नहीं, जड़ चैतन्य की।
गुरु प्रसन्न सावन कूला, मिटी सकल कल्पित भय सूला। कल्पनात्मक जो भय का शूल था वो मिट गया। जैसे स्वप्न का दुख होता है ना, जगने पर मिट जाता है, ऐसे गुरु प्रसन्न हुए, करुणा करी, तो उनकी प्रसन्नता से अज्ञान तिमिर का नाश हुआ, तो दिखाई दिया कि कोई बंधन ही नहीं था। हम तो जीवन मुक्त थे, रहेंगे। समझ रहे हो आप? कभी बंधन हुआ है क्या आत्मा का? तो किसका मोक्ष, भव बंधन और भव मुक्ति दोनों अज्ञान है। क्यों?
गुरुदेव जरूरी हैं। बड़े-बड़े महापुरुषों के आगे गुरुदेव होते हैं, और गुरुदेव जिसके आगे हैं तो माया नाम की कोई चीज नहीं है। गुरुदेव की कृपा दृष्टि, ऐसे बड़ा माया का प्रभाव। हम गुरुदेव को मनुष्य मानते हैं, हम गुरुदेव को बहु संत मानते हैं, लेकिन गुरु साक्षात परब्रह्म यह नहीं मान पाते। अगर यह मान लें तो सच्ची पूछो कोई साधन करने की जरूरत नहीं है। परब्रह्म की कृपा दृष्टि पड़ते ही माया मल काटा। पर हमारी श्रद्धा उस कोटि की नहीं ना। गुरुदेव को ब्रह्म नहीं मान पाते। “यद् सर्वं खल्विदं ब्रह्म”, तो गुरुदेव तो मूर्तिमान ब्रह्म है ही, पर वह मानना नहीं हो पाता।
हम कई ऐसे साधकों को देखते हैं, वो अपने गुरु जी की अवहेलना कर देते हैं। नहीं नहीं, गुरु साक्षात। पर खड़े रहो। जब तक गुरुदेव नहीं कहेंगे, खड़े रहेंगे। बैठ जाओ, बैठ जाओ। बैठ गए। मतलब गुरुदेव का स्वरूप भगवान से भी बढ़कर है। एक तरफ भगवान, एक तरफ गुरुदेव, तो हमारी पहली दंडवत गुरुदेव की होगी, भगवान की बाद में होगी। “गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु आपने गोविंद…”