जब कोई इंसान किसी उच्च और प्रतिष्ठित पद पर कार्य कर रहा होता है तो उसे एक अलग सम्मान प्राप्त होता है। अगर इंसान किसी प्रतिष्ठित पद पर नहीं है लेकिन ऐसे छोटे पद पर भी है जहां उसके माध्यम से लोगों का काम निकलता है तो उसे भी एक अलग सम्मान प्राप्त होता है। आमतौर पर यह देखा गया है कि जब इंसान अपने पद से हट जाता है तो उसे उतना सम्मान नहीं मिलता है और लोग उससे बचने लगते हैं। बचने की यह प्रवृत्ति हमारे उस स्वार्थपरक व्यवहार की तरफ संकेत करती है जो अपनी सुविधानुसार बदलता रहता है।
हमारा स्वार्थपरक व्यवहार यह दर्शाता है कि हम अपने मतलब के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या हमारे द्वारा दूसरे इंसान को दिया गया सम्मान नकली होता है ? क्या हम दूसरे इंसान को अपने स्वार्थ के अनुसार सम्मान देते है ? इस सम्बन्ध में हमारा व्यवहार यह प्रदर्शित करता है कि हम अपने स्वार्थ के अनुसार ही दूसरों को सम्मान देते हैं। अगर दूसरों को सम्मान देने के पीछे भी स्वार्थ का भाव है तो यह वास्तविक सम्मान कैसे हो सकता है ?
इन सभी बातों का अर्थ यह भी नहीं है कि हम दूसरों को सच्चा सम्मान देते ही नहीं हैं। अपने कुछ रिश्तेदारों, अच्छे गुरुओं और ऐसे लोगों को जिन्हें दिल से चाहते हैं, हम सच्चा सम्मान देते हैं। हालांकि समाज, अपने कार्यालय और दूसरों के कार्यालय में हम काफी तौल कर सम्मान देते हैं। यानी सम्मान देने में भी गणित लगाते हैं। ऐसा नहीं हैं कि यह गणित हम ही लगाते हैं। जिन्हें हम असली या नकली सम्मान देते हैं, वे भी दूसरों को सम्मान देते हुए ऐसा ही व्यवहार करते हैं।
दरअसल सच्चा सम्मान तो दिल से दिया जाता है। जिसे हम सच्चे अर्थों में चाहते हैं उसके प्रति हमारा सिर स्वयं ही सम्मान से झुक जाता है। यह सही है कि अपने से बड़ों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए सिर झुकाया जाता है लेकिन हमउम्र और अपने से छोटे ऐसे लोगों के प्रति भी किसी न किसी रूप से सम्मान प्रकट किया ही जाता है, जिन्हें हम प्रेम करते हैं। प्रेम के बिना सम्मान पैदा नही हो सकता। जिन लोगों को हम नकली या झूठा सम्मान देते हैं, उन लोगों के प्रति हमारे दिल में प्यार नहीं होता है। जब हम स्वार्थ के वशीभूत होकर किसी इंसान को सम्मान देते हैं तो हम उससे प्यार का रिश्ता कायम नहीं कर पाते हैं।
प्रेम और स्वार्थ का रास्ता एक दूसरे के विपरीत होता है। प्रेम मे समर्पण का भाव निहित होता है जबकि स्वार्थ में किसी भी तरह का समपर्ण नहीं होता है। स्वार्थ में किसी भी तरह से अपना मतलब साधने का भाव होता है। जहां केवल अपना मतलब साधने का भाव होगा वहां किसी भी कीमत पर प्रेम पैदा नहीं हो सकता।
अगर हम रिश्तों में गणित लगाएंगे तो वहां प्रेम कैसे पैदा होगा? प्रेम तो बिना गणित के ही पैदा हो सकता है। जोड़-तोड़ की भावना तो हमेशा दरार ही पैदा करती है। एक ऐसी दरार जो कभी भरी नहीं जा सकती। स्वार्थ के वशीभूत होकर जब हम किसी इंसान को सम्मान देते हैं तो वहां अनेक दरारें पैदा हो जाती हैं। उन दरारों को भरने में हम झूठ का सहारा लेते हैं।
अलग-अलग दरारों को भरने में अलग-अलग झूठ का सहारा लिया जाता है। इस तरह लगातार दरारें भी बढ़ती चली जाती हैं और झूठ भी बढ़ता चला जाता है। जिस इंसान को झूठा सम्मान दिया जाता है, इस प्रक्रिया से अंतत: उसे भी झूठे सम्मान और झूठी भावना का पता चल जाता है। झूठ के सहारे कोई रिश्ता आखिर कितने समय तक निभ सकता है ? जब हम किसी इंसान को झूठा सम्मान देकर उसकी झूठी प्रशंसा करते हैं तो हम स्वयं तो वास्तविकता से दूर होते ही है, उस इंसान को भी वास्तविकता से दूर करने की कोशिश करते हैं।
ब्रह्मचारी जी : गुरु परंपरा के प्रति श्रद्धा भाव
सुनील दत्त पांडेय
हमारे यहां गुरुओं की परंपरा बहुत समृद्ध है। गुरुओं के प्रति श्रद्धा भाव-समर्पण हमें सही दिशा में ले जाने के लिए प्रेरित करते हैं। इसी गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन हर वर्ष चैत्र कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि को अपने गुरु ब्रह्मचारी जी के प्रति उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धा भाव प्रकट कर उनके शिष्य करते हैं। ब्रह्मचारी जी की तपस्थली उत्तराखंड के प्रवेश द्वार हरिद्वार के प्राचीन तीर्थ कनखल रही है।
कनखल में कई वर्षों तक गंगा के पावन तट पर ब्रह्मचारी जी ने कठोर साधना की और गो माता की सेवा की। उनके पास जो भी उनका शिष्य जाता या श्रद्धालु उनके दर्शन के लिए आता वे उसे गो माता को सेवा करने के लिए प्रेरित करते थे। 60 से 80 के दशक तक उनका जीवन कनखल में एक फक्कड़ संन्यासी की तरह बीता। उनकी भविष्यवाणी सटीक और सत्य होती थी।
कनखल के पुराने लोगों की जुबान पर ब्रह्मचारी जी के किस्से आज भी सुने जा सकते हैं। ब्रह्मचारी जी कहां के रहने वाले थे, यह किसी को नहीं पता। लोग अपने-अपने अंदाज से उन्हें कोई हिमाचल का कहता है तो कोई कहीं का। परंतु ब्रह्मचारी जी सबके थे, गरीब और अमीर सभी के साथ समान व्यवहार करना उनकी एक खूबी थी।
अपने जीवन के अंतिम समय में वे कनखल में दक्षेश्वर महादेव मंदिर के पीछे शीतला माता मंदिर के पास सतियों के स्थान पर रहने लगे और वहीं गंगा तट पर उन्होंने चार अप्रैल 1983 को अपने प्राण त्याग दिए और ब्रह्मलीन हो गए। उनके भक्तों ने उस स्थान पर उनकी समाधि बनाई, जहां पर वह ब्रह्मलीन हुए थे और आज यह पवित्र स्थान श्रद्धालुओं की भक्ति और श्रद्धा का प्रमुख केंद्र है। जहां पर हर साल पंचांग तिथि के अनुसार चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि को उनकी पुण्यतिथि पर विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है और उनकी समाधि को फूलों से सजाया जाता है।
कई श्रद्धालु चार अप्रैल को कैलेंडर की तारीख के अनुसार उनकी पुण्य स्मृति में भजन संध्या और भंडारे का आयोजन करते हैं। हरिद्वार के तीर्थ पुरोहित कनखल के रहने वाले राजकुमार त्रिपाठी बताते हैं कि ब्रह्मचारी जी हिमाचल के रहने वाले थे और वे 1962 के कुंभ मेला के समय हरिद्वार आए थे और फिर यहीं के होकर रह गए।
वे कनखल के श्मशान घाट, राजघाट, सती घाट, दक्षेश्वर महादेव मंदिर घाट, शीतला माता मंदिर घाट आदि स्थानों पर बैठा करते थे, सबसे प्रिय उन्हें कनखल का श्मशान घाट लगता था। जहां पर उन्होंने कई वर्ष तक कठोर साधना की थी। उनका जीवन बेबाक और खुली किताब था। वास्तव में वे एक सच्चे साधक और संन्यासी थे।