रश्मि सहगल
दिव्य प्रेम के संदेश के प्रसार के लिए परमहंस विश्वानंदजी ने कई देशों की यात्राएं कीं और उनसे जुड़कर हजारों लोगों के जीवन में सकारात्मक बदलाव आया। मारीशस में जन्मे परमहंस विश्वानंद बचपन से ही धार्मिक बिम्बों और प्रतिमाओं की ओर आकृष्ट होने लगे थे। वे पांच साल के थे, जब उनके गुरु महावतार बाबाजी ने उन्हें उनके सच्चे स्वरूप का भान कराया। जैसे-जैसे वे बड़े होने लगे, उनके सान्निध्य में कई चमत्कारी घटनाएं और रहस्यमय अनुभव दरपेश आए। 14 वर्ष की आयु में उन्हें सहज समाधि का अनुभव हुआ जो चार दिन चला। तभी उन्हें समझ में आया कि जीवन में उनका लक्ष्य मनुष्यों के दिलों मेें दिव्य प्रेम की लौ जगाना है। उन्हें भान हुआ कि वे अपने आशीर्वाद से पीड़ा पा रहे लोगों को सुस्वस्थ करने में सक्षम हैं।

अपने भक्तों से संपर्क करने के गुरुजी के अपने ही तरीके हैं। गुरुजी ने समाज को भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए संसारभर में कई मंदिर और आश्रम स्थापित किए हैं और उनके भक्त दुनिया के कोने-कोने में हैं। उनकी रूसी भक्त तोमारा उदारत्सोवा (उनका आध्यात्मिक नाम शांति है) कहती हैं, गुरुजी ने मुझे पंख दिए। मैं उनकी उपस्थिति सदा ही अनुभव करती हूं। गुरुजी जीवन से प्रेम करते हैं। वे हमारे जीवन के सभी पक्षों का ध्यान रखते हैं और अपने भक्तों की हित चिंता माता-पिता से बढ़ कर करते हैं। आश्रम में आने पर मैं गहरी शांति का अनुभव करती हूं।

परमहंस विश्वानंदजी को क्रिया योग की दीक्षा महावतार बाबाजी ने दी और दीक्षित होने पर उन्होंने संसार का आत्म क्रिया योग का वरदान दिया। ये क्रियाएं भक्ति के नौ स्वरूपों और परमात्मन से हमारे अनूठे संबंध को जागृत करने में सहायक है। दिव्यता से हमारे संबंध को प्रगाढ़ करने के लिए वे श्री वैश्णव आचार्य होने के नाते धार्मिक ग्रंथों और पूजा अनुष्ठानों से जुड़े गहरे सत्य बताते हैं।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सतगुरु के रूप में वे हमारी आध्यात्मिक प्रगति को बढ़ाकर हमें परमात्मा के श्रीचरणों तक ले जाते हैं। उनके ही शब्दों में, जब तुम दर्शन को आते हो और उस क्षण में मैं तुम्हारी आत्मा को देखता हूं तो मुझे तुम्हारा सच्चा स्वरूप दिखता है। और मैं उस की सुंदरता को देख पाता हूं जो तुम्हारे अंदर है। मैं चाहता हूं कि तुम इसे देखो, मैं चाहता हंू कि तुम खुद इस समझ को प्राप्त कर लो।