Shri Hit Premanand Govind Sharan Ji Maharaj: राधावल्लभ संप्रदाय के प्रसिद्ध संत प्रेमानंद महाराज के प्रवचन देश-दुनिया में काफी प्रसिद्ध है। वह लोगों के प्रश्नों के उत्तर बहुत ही साधारण तरीके से देते हैं जिनका अनुसरण करना हर किसी के लिए काफी सरल होता है। प्रेमानंद महारात एकांतिक वार्तालाप में लोगों के कई प्रश्नों के उत्तर देते हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति ने महाराज जी से पूछा कि जैसे लोग भंडारा कराते हैं, भगवान के नाम का प्रसाद या लंगर लगाते हैं, तो ऐसा बोला जाता है कि प्रसाद बांटने वाले के पाप कट रहे हैं और भोग पाने वाले के हिस्से में आते हैं और उनके पुण्य नष्ट होते हैं। तो महाराज जी, हम अपने हिस्से के पाप किसी और को क्यों दें? हमारे खुद के गलत कर्मों की सजा कोई और क्यों भोगे? आइए जानते हैं प्रेमानंद महाराज ने क्या दिया उत्तर…
महिलाएं हनुमान जी की सेवा कर सकती हैं कि नहीं? प्रेमानंद महाराज ने दिया ये उत्तर
व्यक्ति के प्रश्न का जवाब देते हुए महाराज जी ने इसका दूसरा भाव कर लो कि भगवान ने हमको चार रोटी दी है, तो दो में हम बांट कर खा रहे हैं। पाप-पुण्य काहे को लगा रहे हैं? हम कोई पाप नष्ट करने की बात नहीं कर रहे, अपने भगवान की आराधना कर रहे हैं। “दयम वस्तु गोविंदम तु समर्पयामि” – हे भगवान, आपके द्वारा दी वस्तु आपकी सेवा में लगा रहे हैं, तो पाप वाली बातें हटा दो। यह बात सर्वोत्तम है। “दिय वस्तु गोविंदम तु” – हे गोविंद, आपने जो मुझे दिया, उसी में से हम कुछ बांट रहे हैं। कोई पुण्य का, कोई पाप का झंझट मत रखो। तो भगवत सेवा बन जाएगी। अगर करने वाले का कोई संकल्प न हो, वो यह भाव रखे कि “मैं अपने आराध्य देव को ही विविध रूपों में पा रहा हूं,” तो यह सामने वाले के किसी भी उस पर नहीं आएगा।
गृहस्थ लोग इस बात का रखें ख्याल
अब सामने वाले को यह ध्यान रखना है कि यदि आप गृहस्थ हो और तीर्थ या धाम आए हो, तो ऐसे मत करो ऐसे मत करो। तुम बाबा जी नहीं हो, तुम गृहस्थ हो। बिहारी जी के मंदिर में मिले, राधा वल्लभ जी के मंदिर में मिले, तो ऐसे ले, लो किन्तु वह भी थोड़ा। यह भर-भर के जो बड़ी खीर और पकौड़ा और समोसा जो खा रहे हो, ये ठीक नहीं है। तुम गृहस्थ हो, तुम अपनी कमाई करते हो, तो धाम आओ, तीर्थ आओ, दो को पवा दो। लेकिन पाने की इच्छा मत रखो। तुम गृहस्थ हो। गृहस्थ आदमी को ऐसे नहीं करना चाहिए । तुम्हारे पास मेहनत के कमाए हुए रुपए हैं। कुछ ना हो तो एक दिन उपवास कर लो, दूसरे दिन थोड़ा चना चबाकर पार कर लो। धाम आयो दो-तीन दिन, अब दूसरे का दिया हुआ हलवा, पकड़ी और रबड़ी रसगुल्ला खाओगे तो तुम्हारी ना तो बुद्धि काम करेगी और ना भजन बनेगा। सुकृत और नष्ट हो जाएंगे, यह बात समझ लो।
इसलिए हम कई बार सत्संग में प्रायः रोका है कि मंदिर में आप प्रसाद ले सकते हो, यह जो बाहर सब दान-पुण्य वाला भावनात्मक है, यह तुम्हारे लिए हानिकारक होगा। नहीं लेना चाहिए। जैसे परिक्रमा आदि में बट रहा है, वह तो चलो, हम ऐसे किया चल जी। जैसे किसी आश्रम आदि में कहीं रुकते हैं तो वहां अगर पाते हैं, तो उतना देना चाहिए। देना चाहिए। अगर आप होटल में जाओ, तो पता चले कि यह भोजन हमें ₹100 का मिलेगा, तो हम कह रहे हैं ना ₹100 तुम दो, तो ₹50 तो दे ही दो। वहां ठाकुर जी के चरणों में चढ़ा दो, फ्री पाकर मत आओ।
गृहस्थ हो, तो फ्री का पानी तक न पियो
अगर गृहस्थ हो, तो तीर्थ-धाम जाओ, कहीं भी फ्री पानी भी मत पियो। अगर पानी भी पिया तो रुपया वहां रख दो। ऐसे चलना चाहिए। गृहस्थ तप के अंतर्गत ही आ जाता है महाराज जी, बिल्कुल, बिल्कुल। इसको बहुत सावधानी से देखो। तीर्थाटन जो है, सब कोई नहीं लाभ ले पाता है। तीर्थों में जाकर नशा करना, तीर्थों में जाकर होटल बुक करके व्यभिचार करना, तीर्थों में गंदे आचरण – भारी पाप कमा के आ रहे हो। दूसरे का खा लिया कि यार बच गए रे, बच गए। इनके भंडारे में खा लिए। ₹100 तो तुमने बहुत मेहनत में कमाए, लेकिन पुण्य जो बहुत मेहनत में कमाए, वह दे दिए। तुम्हें पता नहीं है कि ₹100 नहीं, हजारों का पुण्य नुकसान हो गया।
तीर्थ जाएं, तो इन बातों का रखें ख्याल
बहुत सावधानी से तीर्थों में जाएं। हम कह रहे हैं, भगवान के धामों, तीर्थों में जाएं, तो दूसरों का पाए मत। दूसरों की निंदा मत करें। कोई पाप मत करें। एक दिन भले उपवास करके रह जाएं, इसके बाद चला जाएं यहां से। यहां रहकर कोई पाप आचरण न करें भगवत धामों में। और गृहस्थी में तो ऐसे करना बनता ही नहीं। ऐसे वो बांट रहा है, अगर ऐसे किया तो ₹50 उसकी जेब में डाल दो। हम मान गए तुम्हारी बात।
इसमें फिर दूसरा सिद्धांत यह समझ आ रहा है कि जैसे पाप उसके नष्ट हो रहे हैं, यह ले रहा है – एक सिद्धांत हो गया। इसमें यह समझ आ रहा है कि इसका जो तप है, उसका जो पुण्य बना और उसको लाभ जा रहा है, इसके पुण्य नष्ट हो रहे हैं। इसमें गृहस्थ धर्म की एक मर्यादा भी है। हम पाप-पुण्य दोनों को छोड़ रहे हैं। गृहस्थ धर्म की – आप कमाते हो, आप तीर्थ आए हो, धाम आए हो, आप दो का पेट भरना सीखो, अपने पेट को भरो मत किसी के दान-पुण्य के वस्तु से। अपने तो जैसे बने वैसे खाओ-पियो।
अब जैसे धाम आए हो, तो ₹10 के चने ले लिए, बंदरों को डाल दिए। कुछ दाना ₹10 के डाल दिया जो पक्षी वृंदावन के जैसे भूखे गली में इधर-उधर बैठे रहते हैं, अपंग हैं, कोई कुछ। चार फल ले लिए, सेव – एक-एक बांट दिए। हो गया गृहस्थी में। हम कह रहे हैं, कुछ नहीं है ना। जब भगवान सुदामा जी के तंदुल पा सकते हैं, तो तुम्हारी कुछ भी वस्तु – दो फूल ले लिए, बिहारी जी के चरणों में चढ़ा दो। लेकिन हम किसी का खाएंगे नहीं, हम किसी का दान-पुण्य लेंगे नहीं। गृहस्थ आदमी ऐसे चले।
विरक्त का है कि अब बाबा जी कहीं पेट भरना, जहां भगवान व्यवस्था कर दें, पाया, दिन भर भजन किया। गृहस्थ को ऐसा चाहिए कि अपनी मेहनत का धाम आदि, तीर्थ आदि में खाए। कहीं भी किसी दूसरे का दान-पुण्य का भोजन ना करें। अगर साधु महात्माओं के आश्रमों में भी पावे, तो वहां ठाकुर जी के सामने कुछ ना कुछ भेंट चढ़ा दे। या फिर भेंट ना हो तो सेवा कर दे, झाड़ू लगा दे, वहां दोना-पत्तल फेंक दे – निपट जाएगा। हम ऐसे फ्री में किसी का ना खाएं।
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