हिंदू धर्म में वैसे तो करोड़ों देवी देवता माने गये हैं। लेकिन उनमें से कुछ ऐसे देवी देवता जो सबसे ज्यादा पूजे जाते हैं। इन्हीं देवताओं में से एक हैं भगवान शिव। जिनमें आस्था रखने वाले लोगों की कोई कमी नहीं हैं। कहते हैं कि स्वभाव से भोले होने के कारण इनका एक नाम भोलेनाथ पड़ा था। कहा जाता है कि जहां भगवान ब्रह्मा पृथ्वी के सृजनकर्ता, भगवान विष्णु पालनहार हैं तो वहीं शिव विनाशक की भूमिका में हैं। पुराणों के अनुसार भगवान शिव अपने शरीर पर जो विभिन्न प्रकार की वस्तुएं धारण करते हैं, जैसे गले में सर्प, मस्तक पर चंद्रमा, जटाओं में गंगा, हाथ में त्रिशूल और डमरू। इन सब के पीछे कोई न कोई रहस्य जरूर छिपा हुआ है। यहां हम जानेंगे शिव के त्रिशूल और डमरू धारण करने के पीछे की कहानी को…
भगवान शिव के हाथों में डमरू की कहानी बड़ी ही रोचक है। कहा जाता है कि सृष्टि के आरंभ में जब देवी सरस्वती प्रकट हुई तब देवी ने अपनी वीणा के स्वर से सष्टि में ध्वनि को जन्म दिया। लेकिन इस ध्वनि में न तो सुर था और न ही संगीत। सृष्टि के आरंभ से आनंदित शिव जी ने जैसे ही नृत्य आरंभ किया और 14 बार डमरू बजाया तभी उनके डमरू की ध्वनि से व्याकरण और संगीत के धन्द, ताल का जन्म हुआ। इसी वजह से शिव के हाथ में सदैव डमरू रहता है। कहा ये भी जाता है कि सृष्टि में संतुलन के लिए इसे भगवान शिव अपने साथ लेकर प्रकट हुए थे।
शिव के हाथ में त्रिशूल कैसे आया इसके पीछे की मान्यता है कि सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मनाद से जब शिव प्रकट हुए तो साथ ही रज, तम और सत यह तीन गुण भी प्रकट हुए। यही तीनों गुण शिव जी के तीन शूल यानी त्रिशूल बने। इन तीनों के बीच सांमजस्य बनाए बिना सृष्टि का संचालन कठिन था। इसलिए शिव ने त्रिशूल रूप में इन तीनों गुणों को अपने हाथों में धारण किया। कहा जाता है कि महादेव का त्रिशूल प्रकृति के तीन प्रारूप- आविष्कार, रखरखाव और तबाही को भी दर्शाता है। साथ ही तीनों काल भूत,वर्तमान और भविष्य भी इस त्रिशूल में समाते हैं।