कुमार कृष्णन

श्रावण माह भगवान शिव को समर्पित है। भगवान शिव ‘संहारक’ हैं, सृजनकर्ता और ‘नव निर्माण कर्ता’ भी हैं। ‘शिव’ अर्थात कल्याणकारी, सर्वसिद्धिदायक, सर्वश्रेयस्कर ‘कल्याणस्वरूप’ और ‘कल्याणप्रदाता’ है। जो हमेशा योगमुद्रा में विराजमान रहते हैं और हमें जीवन में योगस्थ, जीवंत और जागृत रहने की शिक्षा देते हैं। पुराणों में उल्लेख है कि समुद्र मंथन के दौरान निकले विष के विनाशकारी प्रभावों से इस धरा को सुरक्षित रखने के लिए भगवान शिव ने उस हलाहल को अपने कंठ में धारण किया और पूरी पृथ्वी को विषाक्त होने से बचा लिया।

तीर्थ नगरी देवधर स्थित द्वादश ज्योर्तिलिंग बाबा बैधनाथ और सुलतानगंज की उत्तर वाहिनी गंगा तट पर स्थित बाबा अजगैबीनाथ के साथ दुमका जिला में बाबा बासुकीनाथ धाम की गणना बिहार और झारखंड ही नहीं, वरन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख शैव-स्थल के रूप में होती है। इस पावन धाम में श्रावणी- मेला के दौरान केसरिया वस्त्रधारी कांवड़ियों व तीर्थयात्रियों की खास चहल-पहल रहती हैं।

ऐसी मान्यता है कि बासुकीनाथ की पूजा के बिना बाबा बैद्यनाथ की पूजा अधूरी है। यही कारण है कि श्रद्धालु बाबा बैद्यनाथ की पूजा के साथ साथ यहां आकर नागेश ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात बाबा बासुकीनाथ की अराधना करते हैं। सावन के महीने में तो हजारों लाखों श्रद्धालु सुलतानगंज-अजगैबीनाथ से उत्तरवाहिनी गंगा का पवित्र जल अपने कांवड़ में भरते हैं।

फिर एक सौ किलोमीटर से भी अधिक पहाड़ के जंगली रास्ते पैदल पारकर इसे देवघर में बैधनाथ ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाते हैं। इसके बाद वे बासुकीनाथ आकर नागेश ज्योतिर्लिंग पर जल-अर्पण करते हैं। भगवान शिव औघड़दानी कहलाते हैं। शिव-भक्त मानते हैं कि जहां (बैद्यनाथ धाम) भगवान शंकर की दीवानी अदालत है, वहीं बासुकीनाथ धाम उनकी फौजदारी अदालत है। बाबा बासुकीनाथ के दरबार में मांगी गई मुरादों की तुरंत सुनवाई होती है।

प्राचीन काल में बासुकीनाथ घने जंगलों से घिरा था। उन दिनों यह क्षेत्र दारूक-वन कहलाता था। पौराणिक कथा के अनुसार इसी दास्क-बन में द्वादश ज्योतिर्लिंग स्वरूप नागेश्वर ज्योतिर्लिंग का निवास था। शिव पुराण में वर्णित है कि दारूक-बन दारूक नाम के असुर के अधीन था। कहते हैं, इसी दारूक-बन के नाम पर संताल परगना प्रमंडल के मुख्यालय दुमका का नाम पड़ा है।

बासुकीनाथ शिवलिंग के आविर्भाव की कथा अत्यंत निराली है। एक बार की बात है- बासु नाम का एक व्यक्ति कंद की खोज में भूमि खोद रहा था। उसके शस्त्र से शिवलिंग पर चोट पड़ी। बस क्या था-उससे रक्त की धार बह चली। बासु यह दृश्य देख कर भयभीत हो गया। उसी क्षण भगवान शंकर ने उसे आकाशवाणी के द्वारा धीरज दिया कि डरो मत, यहां मेरा निवास है।

भगवान भोलेनाथ की वाणी सुन बासु श्रद्धा-भक्ति से अभिभूत हो गया और उसी समय से उस लिंग की मूर्ति्त-पूजन करने लगा। बासु द्वारा पूजित होने के कारण उनका नाम बासुकीनाथ पड़ गया। उसी समय से यहां शिव-पूजन की जो परंपरा शुरू हुई। आज यहां भगवान भोले शंकर और माता पार्वती का विशाल मंदिर है। मुख्य मंदिर के बगल में शिव गंगा है जहां श्रद्धालु स्रान कर अपने आराध्य को बेल-पत्र, पुष्प और गंगाजल समर्पित करते हैं। अपने कष्ट क्लेशों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं।

हिंदुओं के कई ग्रंथों में सागर मंथन का वर्णन किया गया है। बासुकीनाथ मंदिर का इतिहास भी सागर मंथन से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि सागर मंथन के दौरान पर्वत को मथने के लिए वासुकी नाग को माध्यम बनाया गया था। इन्हीं वासुकी नाग ने इस स्थान पर भगवान शिव की पूजा अर्चना की थी। यही कारण है कि यहां विराजमान भगवान शिव को बासुकीनाथ कहा जाता है।