उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र को राज्य की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का प्रमुख केंद्र माना जाता है। अल्मोड़ा और नैनीताल तो मानो राज्य की सांस्कृतिक राजधानियां हैं। कुमाऊं में हर पर्व का नाता लोगों की सांस्कृतिक भावनात्मकता का प्रतीक है जो पर्वतीय लोगों को उमंग, उल्लास, गीत संगीत के साथ हर पर्व को मनाने की प्रेरणा देता है। ऐसा ही कुछ कुमाऊनी होली की परंपरा के साथ जुड़ा है। वैसे भी होली का पर्व उल्लास, रंगों और उमंग का पर्व माना जाता है और कुमाऊनी होली के साथ अनेक पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। कुमाऊनी होली में महत्त्वपूर्ण भूमिका महिला और पुरुष होल्यारों की होती है।

कुमाऊं की होली का वर्तमान स्वरूप चंद राजाओं के समय के दरबारी गायन से जुड़ा है। कुमाऊं की गायकी की होली में ब्रज और कन्नौज का प्रभाव देखने को मिलता है। कुमाऊं पौष मास से होली की फिजा में रंगने लगता है। फागुन मास में यह पूरे शबाब पर होता है और पूरा कुमाऊं होली की मस्ती में डूब जाता है। कुमाऊं में दो तरह की होली मनाने की परंपरा है। इसमें एक ‘बैठकी होली’ और दूसरी ‘खड़ी होली’ शामिल है। खड़ी होली और बैठकी होली में दो-तीन दर्जन से अधिक महिलाएं व पुरुष पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ अलग-अलग समूह बनाकर हर घर, गांव के मंदिर और चौपाल में भक्ति भाव में डूब कर होली के गीत गाते हैं। कुमाऊं की बैठकी होली के गीत कई तरह के राग-रागिनियों में ढले होते हैं। कुमाऊं में कई दिनों तक विष्णुपदी होली गाई जाती है। वैसे पहाड़ों में होली की शुरुआत बसंत पंचमी के दिन से शुरू हो जाती है।

उस दिन गणेश पूजन के साथ होली का झंडा गाड़ा जाता है और इस झंडे के ऊपरी भाग में पीले रंग की पताका लगाई जाती है।कुमाऊं में होली दहन से पहले फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन से होल्यार होली के रस और रंगत में आने लगते हैं। बैठकी होली में आने वाले होल्यारों की तादाद भी बढ़ने लगती है। बसंत पंचमी से लेकर फागुन पूर्णिमा तक यह त्योहार मनाया जाता है। इस मध्य महाशिवरात्रि का पर्व भी आता है। तभी कुमाऊं की होली में भगवान शिव और पार्वती के होली खेलने के प्रसंग से जुड़े गीत भी गाए जाते हैं। कुमाऊं में फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कपड़ों में रंग डाला जाता है और इन कपड़ों को फाल्गुन मास की पूर्णिमा के अगले दिन पहनकर होली खेली जाती है।

इसीलिए फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को रंग एकादशी भी कहते हैं। भारतीय प्राचीन संगीत के रागों पर आधारित होली को बैठकी होली कहते हैं। बैठकी होली के विपरीत खड़ी होली है जिसमें रागों का महत्त्व नहीं होता है जिसे मोटी होली भी कहा जाता है। खड़ी होली में गायन के साथ-साथ नृत्य किए जाते हैं। कुमाऊं में होली संगीत और नृत्य का मिलाजुला संगम है जो शिव-पार्वती, राधा-कृष्ण के संवादों और भजनों और गीतों पर आधारित है।

देश में मनाए जाने वाले रंगों के पर्व होली का एक अलग ही पारंपरिक रंग उत्तराखंड में देखने को मिलता है। कुमाऊं की पारंपरिक बैठकी और खड़ी होली को घर-घर पहुंचाने का काम युवा होल्यार कर रहे हैं। हर साल होली के मौके पर युवाओं की ये टोली पहाड़ी परिधान, रीति-रिवाज, पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ घर-घर जाकर खड़ी होली की प्रस्तुति देती है।

होली की सांस्कृतिक झलक
उत्तराखंड के मैदानी और पर्वतीय क्षेत्रों में होली के विविध राग-रंग देखने को मिलते हैं। उत्तराखंड के अलग-अलग जिलों में अलग-अलग मोहल्लों और बस्तियों में होली का अलग-अलग रूप दिखाई देता है। जिन मोहल्लों में कुमाऊं के लोग रहते हैं, वहां होली में कुमाऊनी झलक दिखाई देती है और जिन मोहल्लों में गढ़वाली लोग रहते हैं, वहां पर गढ़वाली रंग रूप होली में दिखाई देता है।

होली पूजने की सदियों पुरानी परंपरा
उत्तराखंड में होली को पूजने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। यहां के तीर्थ पुरोहित और स्थानीय निवासी विभिन्न स्थानों पर बनाई गई होली को पूजते हैं और गोबर के बने हुए उपले और मालाएं होली के ऊपर चढ़ाते हैं। होली माता की पूजा की जाती है और अपने बच्चों को लेकर माताएं होली की परिक्रमा कराती हैं ताकि उनके बच्चों को किसी भी तरह के कष्टों से मुक्ति मिल सके। हरिद्वार जिले में स्थित भगवान शिव की ससुराल कनखल में तो बकायदा होली मोहल्ला सदियों से स्थापित है।

जिस चौराहे पर होली जलाई जाती है और वहां दूर-दूर से लोग होली पूजने आते हैं। होली के बाद लोग बाग कनखल में शीतला माता मंदिर में माता को प्रसाद चढ़ाने के लिए अपने बच्चों को लेकर जाते हैं ताकि उनके बच्चों पर साल भर शीतला माता की कृपा बनी रहे और वे बुरी नजरों से बचे रहें। इस तरह उत्तराखंड में होली खेलने और पूजने की परंपरा सदियों पुरानी है जिसका निर्वहन आज भी हो रहा है।

कुंभ में नागा साधुओं की गोबर की होली

दशनामी नागा संन्यासियों के अखाड़ों में आपको गोबर से खेलने वाली होली दिखाई देगी। कुंभ के अवसर पर नागा साधु गाय के गोबर से होली खेलते हैं और एक दूसरे को गाय का गोबर लगाते हैं। गाय के गोबर को एक दूसरे के ऊपर डालते हैं। नागा साधुओं की कुंभ की होली देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। पंच दशनाम जूना अखाड़ा के अंतरराष्ट्रीय संरक्षक अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के महामंत्री महंत श्री हरी गिरी महाराज का कहना है कि दशनामी नागा सन्यासियों में गाय के गोबर से होली खेलने की परंपरा सदियों पुरानी है जिसका निर्वहन आज भी नागा साधु करते हैं।