नरपतदान चारण
योगसूत्र के अनुसार अपरिग्रह या अनासक्ति का जीवन में अत्यधिक महत्व है। अपरिग्रह का अर्थ है किसी भी विचार, व्यक्ति, धन या वस्तु के प्रति आसक्ति नहीं रखना या मोह नहीं रखना। जीवन यापन के लिए पर्याप्त आवश्यक तत्वों के अतिरिक्त वस्तुओं या धन का संग्रह करना परिग्रह कहलाता है और इन चीजों के प्रति किसी प्रकार की आसक्ति ना रखना अपरिग्रह।
दु:ख एवं मानसिक अशांति का एक कारण यही परिग्रह यानी संग्रह प्रवृत्ति का होना है। मानव मन एक संग्रहकर्ता है, हमेशा कुछ न कुछ एकत्रित करना, बटोरना चाहता है। मनुष्य ने कुछ इस प्रकार की गलत धारणा बना ली है कि वह जितने भी अधिक से अधिक पदार्थ एवं वस्तु अपने पास संग्रह कर सकेगा, उतनी ही अधिक सुख-शांति उसे मिल सकेगी। इसी आधार पर लोग अपने पास भोग विलास की वस्तुओं का भंडार इकट्ठा करने का प्रयत्न करते रहते हैं।
एक समय बाद इस प्रकार की संग्रह-वृत्ति लोभ को जन्म देती है। लोभ के बढ़ने से वह जो भी वस्तु किसी के पास देखता है। उसे पाने के लिए ललचा उठता है। फिर जिस वस्तु को वह सरल मार्ग से प्राप्त कर सकता है, उसे सरल मार्ग से पाने का प्रयत्न करता है। अन्यथा उसके लिए छल-कपट तथा कुटिलता करने में भी नहीं चूकता। यही से उसकी अधोगति का समय शुरू हो जाता है। इसलिए संसार को सहजता और प्रसन्नता से भोगने के लिए अपरिग्रह की भावना का होना आवश्यक तत्व है। इसे सामान्य भाषा में लोग त्याग की भावना की तरह समझते हैं, लेकिन यह त्याग से अलग है। त्याग में सर्वस्व समर्पण का भाव होता है, जबकि अपरिग्रह में अनावश्यक वस्तु या धन का बहिष्कार होता है।
अपरिग्रह को साधने से व्यक्तित्व में निखार आ जाता है। साथ ही वह शारीरिक और मानसिक रोग से स्वत: ही छूट जाता है। अपरिग्रह की भावना रखने वालों को किसी भी प्रकार का संताप नहीं सताता और उसे संसार एक सफर की तरह सुहाना लगता है। सफर में बहुत से खयाल, फूल-कांटे और दृश्य आते-जाते रहते हैं, लेकिन उनके प्रति आसक्ति रखने वाले दुखी हो जाते हैं और यह दुख आगे के सफर के सुहाने नजारों को नजरअंदाज करता जाता है।
जो व्यक्ति चीजों के फिजूल संग्रह के प्रति निरपेक्ष भाव से जीता है वह शरीर, मन और मस्तिष्क के आधे से ज्यादा संकट को दूर भगा देता है। जब व्यक्ति किसी से मोह रखता है, तो मोह रखने की आदत के कारण यह मोह कालांतर में चिंता में बदल जाता है और चिंता से सभी तरह की समस्याओं का जन्म होने लगता है। योग दर्शन के अनुसार अधिकांश रोग व्यक्ति की खराब मानसिकता के कारण होते हैं। योग मानता है कि रोगों की उत्पत्ति की शुरुआत मन और मस्तिष्क में ही होती है।
कुछ लोगों में संग्रह करने की प्रवृत्ति होती है, जिससे मन में भी व्यर्थ की बातें या चीजें संग्रहित होने लगती हैं। इससे मन में संकुचन पैदा होता है। आसक्ति से ही आदतों का जन्म भी होता है। मन, वचन और कर्म से इस प्रवृत्ति को त्यागना ही अपरिग्रही होना है। यदि आपमें अपरिग्रह का भाव है तो यह शरीर के कष्टों से बच जाता है।
किसी भी विचार और वस्तु का संग्रह करने की प्रवृत्ति छोड़ने से व्यक्ति के शरीर से संकुचन हट जाता है जिसके कारण मन मस्तिष्क शांति महसूस करता है। इससे मन खुला और शांत बनता है। छोड़ने और त्यागने की प्रवृत्ति के कारण शरीर के किसी भी प्रकार के कष्ट नहीं होते।
संग्रह-वृत्ति लोभ को देती है जन्म
दुख एवं मानसिक अशांति का एक कारण यही परिग्रह यानी संग्रह प्रवृत्ति का होना है। मानव मन एक संग्रहकर्ता है, हमेशा कुछ न कुछ एकत्रित करना, बटोरना चाहता है। एक समय बाद इस प्रकार की संग्रह-वृत्ति लोभ को जन्म देती है। लोभ के बढ़ने से वह जो भी वस्तु किसी के पास देखता है, उसे पाने के लिए ललचा उठता है। फिर जिस वस्तु को वह सरल मार्ग से प्राप्त कर सकता है उसे सरल मार्ग से पाने का प्रयत्न करता है। अन्यथा उसके लिए छल-कपट तथा कुटिलता करने में भी नहीं चूकता। यहीं से उसकी अधोगति का समय शुरू हो जाता है।
कुछ लोगों में संग्रह करने की प्रवृत्ति होती है, जिससे मन में भी व्यर्थ की बातें या चीजें संग्रहित होने लगती हैं। इससे मन में संकुचन पैदा होता है। आसक्ति से ही आदतों का जन्म भी होता है। मन, वचन और कर्म से इस प्रवृत्ति को त्यागना ही अपरिग्रही होना है।
