दुर्गापुर के अधिकतर बच्चों, युवाओं और नव विवाहित लोगों ने गांव को छोड़ना शुरु कर दिया है। इसका कारण माओवादियों का डर नहीं बल्कि होली का पर्व है। बोकारो स्टील शहर से लगभग 55 कि.मी दूर खानजो नदी के किनारे कास्मार ब्लॉक के 8 हजार के अबादी वाले गांव में लोगों ने करीब 175 सालों से होली का पर्व नहीं मनाया है। 50 वर्ष पूर्व इस परंपरा को तोड़कर होली मनाई गई थी, मान्यता है कि इसके बाद गांव को विपतियों का सामना करना पड़ा था। इस गांव के लोगों के अनुसार होली अपशगुन लेकर आती है।
समय बदलने के साथ इस गांव के बुजुर्ग होली ना खेलने के बंदिशों को कुछ ढीला कर रहे हैं। उनका कहना कि जो लोग रंगो का पर्व होली खेलना चाहते हैं वो अपने दोस्तों, रिश्तेदारों या अन्य किसी स्थान पर जाकर खेल सकते हैं। होली के अपशगुन को लेकर दो मान्यताएं इस गांव में प्रचलित है, कहा जाता है कि दुर्गा पहाड़ी के मंदिर में बराओ बाबा पूजा करते हैं और उन्हें सिर्फ सफेद बकरियां और मुर्गियां भेंट की जाती हैं। मान्यता है कि इस दिन रंगों की भेंट या पर्व मनाने से अपशगुन होता है। अन्य कथा के अनुसार गांव के माघी माहतो ने बताया कि 175 साल पहले इस गांव के राजा दुर्गा प्रसाद के समय धूमधाम से होली का पर्व मनाया जाता था, लेकिन राजा ने पर्व के दौरान ही अपने पुत्र को खो दिया था। इसके बाद प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप इस गांव पर आ गया जिसमें प्लेग और हैजा जैसी बीमारियां फैल गईं। उस साल के बाद राजा ने इस गांव में होली खेलने के लिए मना कर दिया और इस मान्यता आज तक प्रचलित है।
गांव के अन्य निवासी बताते हैं कि 1961 और 1962 में इस मान्यता को तोड़कर होली खेलने के लिए नई प्रथा शुरु करने का प्रयास किया गया था लेकिन अपशगुन ने फिर से इस गांव को घेर लिया। इस साल फसल और जानवरों की मृत्यु हो गई। इसी के साथ गांव के कई नौजवानों की मृत्यु हो गई। रसका मांझी नाम के पुजारी ने इस अपशगुन से बचाने के लिए पूजा की और दुर्गा पहाड़ी मंदिर में बलि देने का रिवाज शुरु किया। इसके बाद स्थिति सामान्य हो गई। इस दिन के बाद से गांव में होली नहीं खेली जाती है।
