पवन गौतम

एक ऐतिहासिक थाती के रूप में सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने वाला मार्गशीर्ष पूर्णिमा को आयोजित ‘श्री बल्देव जी की गद्दल पूनौ’ का मेला अपने आप में अनोखा है। ‘गद्दल’ का अर्थ होता है रजाई। परंपरानुसार, इस आयोजन में शीत ऋतु के चलते एक विशाल मूर्ति को विशिष्ट परिधान के रूप में श्री ठाकुर जी को विशेष प्रकार की रजाई ओढ़ाई जाती है। ब्रज मंडल में ख्यातिलब्ध यह मेला करीब एक माह तक चलने वाला एकमात्र पर्व है।

किंवदंतियों के अनुसार, इस दिन श्री दाऊजी ने अपने अनन्य भक्त गोस्वामी श्री कल्याण देव को अपने एवं माता भगवती रेवती के युगल विग्रहों का प्राकट्य करने का आदेश देते हुए दर्शन दिया था। श्री हलधर समग्र दर्शन शोध संस्थान के निदेशक घनश्याम पांडेय बताते हैं कि यदि इसका समयांकन करें तो यह करीब पांच हजार साल पुराना ठहरता है। ब्रज के पूर्वी छोर पर भगवान श्रीकृष्ण के वंशज वज्रनाभ ने श्री दाऊजी एवं मां रेवती की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की थी। दसवीं शाताब्दी में जब महमूद गजनवी ने महावन पर आक्रमण किया तो उसने एक बड़ा विध्वंस किया।

उस समय यह तीर्थ भी उसके आक्रमण से प्रभावित हुआ। तत्कालीन सेवाधिकारी गोस्वामियों ने देवविग्रहों को भूमिगत कर दिया और वे स्वयं गजनी द्वारा परिजनों के साथ मृत्यु को प्राप्त हो गए। बाकी बचे लोग वहां से पलायन कर गए। बाद में, उसी वंश में गोस्वामी कल्याण देव का जन्म हुआ। वह परमतपस्वी ऋग्वेदीय ब्राह्मण थे। कहा जाता है कि एक बार भगवान बल्देव ने उन्हें दर्शन दिया और अपने भूमिगत विग्रहों के बारे में इशारा किया। अगले दिन, प्रभु के आदेशानुरूप जब खुदाई की गई तो वहां प्रतिमाओं का प्राकट्य हुआ।

वहीं, पर्णकुटी में ही षोडशोपचार के बाद इन विग्रहों को प्रतिष्ठित कर दिया गया। यह तिथि विक्रम संवत के 1638 की मार्गशीर्ष पूर्णिमा यानी सन 1581 ईसवी थी। उसी दिन श्री दाऊजी महाराज का प्रागट्य हुआ और प्रतिष्ठा की गई। तब से इस तिथि को श्री दाऊजी प्रकटोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। समय ने करवट ली। वहां एक मंदिर का निर्माण हुआ जो कि अभी भी मौजूद है।

एक वर्ष की कालावधि में इस देवालय का निर्माण हुआ। गोकुल के तत्कालीन श्रीमद् वल्लभाचार्य के पौत्र गोस्वामी गोकुलनाथ ने युगल देव विग्रह को पुन: उसी तिथि यानी मार्गशीर्ष पूर्णिमा को नवीन देवालय में संवत 1639 को प्रतिष्ठित कर दिया। उस दिन समस्त क्षेत्रवासियों द्वारा एक स्मरणीय उत्सव मनाया गया। बाद में ‘गद्दल पूनौं’ के रूप में इस विशेष उत्सव का आयोजन किया जाने लगा।

विगत 400 वर्षों से चले आ रहे इस उत्सव को ‘दाऊजी की पूनौ’ या ‘पाटोत्सव पूनौ’ के नाम से भी पुकारा जाता है। प्रसिद्ध उर्दू कवि नजीर अकबराबादी ने दाऊजी के इस मेले का वर्णन अपनी एक कविता में किया है। इनके अलावा ग्राउस ने भी अपने मैमायर में इसकी महिमा अंकित की है। 18वीं सदी में इस मेले का विस्तार हुआ। मंदिर के सेवायत गोस्वामी कल्याण देव के वंशजों द्वारा यथासंभव दूर-दूर से आने वाले भक्तजनों की सुविधाओं के लिए मंदिर में आवास आदि की व्यवस्था की जाती रही है। लोक प्रसिद्ध इस मेले में भारत के सभी अंचलों से दर्शनार्थी आते हैं।