देवभूमि उत्तराखंड ऋषि मुनियों, संतों और तपस्वियों को हमेशा अपनी और आकर्षित करती रही हैं। इसी तरह से देवभूमि उत्तराखंड ने सिखों के प्रथम गुरु गुरु नानकदेव को अपनी ओर आकर्षित किया। सनातन धर्म में विशेष पर्वों पर गंगा, जमुना सहित विभिन्न नदियों में स्रान का महत्त्व है और कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर तो गंगा में स्रान का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। कई सौ वर्षों पूर्व सिखों के प्रथम गुरु गुरु नानक देव जी कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा स्रान की महिमा सुनकर हरिद्वार आए।
गुरु नानक देव ने बताया था जल का महत्व
गंगा में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ थी। प्रात: काल में हरिद्वार तीर्थ नगरी के तीर्थ पुरोहित कार्तिक स्रान के उपरांत सूर्य की ओर मुंह करके भगवान सूर्य देव को गंगाजल चढ़ा रहे थे। वहां मौजूद गुरु नानक देव ने उत्सुकतापूर्वक तीर्थ पुरोहितों से पूछा कि आप सूर्य की ओर पूर्व दिशा में मुंह करके सूर्योदय के समय किसको जल चढ़ा रहे हैं। तीर्थ पुरोहितों ने गुरु नानक देव के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि वह भगवान सूर्य को जल चढ़ा रहे हैं, यह बात सुनकर गुरु नानक देव पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके गंगाजल चढ़ाने लगे। जिस पर तीर्थ पुरोहितों ने गुरु नानक देव से वाद-विवाद किया और कहा कि वह सनातन संस्कृति की मान्यताओं का प्रतिवाद न करें।
पंजाब के खेतों के लिए हरिद्वार में चढ़ाया था जल
गुरु नानक देव ने तीर्थ पुरोहितों से कहा कि वे पंजाब में पश्चिम दिशा में स्थित अपने खेतों को जल दे रहे हैं ताकि गंगा का जल उनके खेतों में जाकर फसलों की सिंचाई करें और उनकी अच्छी फसलें हों। गुरु नानक देव की बातें सुनकर तीर्थ पुरोहितों ने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा कि वह मूर्खतापूर्ण बात कर रहे हैं, उनका चढ़ाया हुआ गंगा जल यहां से पंजाब में खेतों में कैसे जाएगा। तीर्थ पुरोहितों की बात सुनकर गुरु नानक देव ने कहा कि जब सूर्य को तीर्थ पुरोहितों द्वारा चढ़ाया गया गंगा जल वहां तक जा सकता है ,जो करोड़ों-करोड़ मील दूर है तो उनका चढ़ाया हुआ गंगाजल कुछ मीलों दूर स्थित पंजाब के खेतों में क्यों नहीं जा सकता? गुरु नानक देव जी यह बात सुनकर तीर्थ पुरोहित निरुत्तर हो गए।
हर की पैड़ी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन ज्ञान का प्रकाश दिया
उसके बाद गुरु नानक देव ने कुछ तीर्थ पुरोहितों की ओर इंगित करते हुए कहा कि वह अपने घर-गृहस्थी की चिंता में कुछ बातें सोच रहे हैं, जिनका गुरु नानक देव ने उल्लेख किया तो तीर्थ पुरोहित गुरु नानक देव की बातें सुनकर चौंक गए, क्योंकि उन्होंने उनके मन की बात उनका मन मस्तिष्क देखकर पढ़ ली थी और उसे उजागर कर दिया, जिस पर तीर्थ पुरोहित गुरु नानक देव के सामने नतमस्तक हो गए और इस तरह गुरु नानक देव ने गंगा के पावन तट पर हर की पैड़ी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन तीर्थ पुरोहितों को ज्ञान का प्रकाश दिया।
इसीलिए कहा जाता है कि गुरु नानक देव ने समाज को ज्ञान दिया और अंधविश्वास से मुक्ति दिलाई। गुरु नानक देव की आध्यात्मिक शक्ति से प्रभावित होकर एक तीर्थ पुरोहित ने उन्हें अपनी पुरोहिताई की गद्दी में चलने को कहा। गुरु नानक देव ने तीर्थ पुरोहित के आग्रह को स्वीकार किया और गंगा तट पर बनी उनकी गद्दी में गए। पुरोहिताई के अपने स्थान में गुरु महाराज को पाकर पुरोहित गदगद हो गए। हरिद्वार में तीर्थ पुरोहित के जिस स्थान पर गुरु नानक देव गए थे, उस स्थान को नानकबाड़ा कहा जाता है। यह केंद्र हिंदू और सिखों की पवित्र और गहरी आस्था का केंद्र है।
इसी तरह सिखों के तीसरे गुरु गुरु अमर दास कनखल के सतीघाट में गंगा तट पर सती प्रथा के खिलाफ अलख जगाने के लिए 22 बार आए। वे 21 बार गृहस्थ के रूप में और एक बार गुरु महाराज के रूप में इस स्थान पर आए। इस स्थान पर उनका गुरुद्वारा और तप स्थान है,जो हिंदू और सिखों की एकता का प्रतीक है। गुरु नानक देव और गुरु अमर दास ने ज्ञान का प्रकाश गंगा के तट पर फैलाया। वहीं दूसरी ओर सिखों के अंतिम दसवें गुरु गोविंद सिंह ने देहरादून की सीमा से लगे विकास नगर क्षेत्र में यमुना के तट पर हिमाचल प्रदेश से लगने वाले पांवटा साहिब को अपना ज्ञान का प्रकाश प्रवाहित करने के लिए चुना।
उन्होंने पांवटा साहिब में यमुना के पावन तट पर अपने पांच शिष्यों को भगवा वस्त्र धारण कराकर निर्मल संत के रूप में संस्कृत का ज्ञान अर्जन करने के लिए बनारस भेजा। इन पांच निर्मल संतों को गुरु ग्रंथ की वाणी के प्रचार के साथ-साथ संस्कृत और वेदों का प्रचार करने की जिम्मेदारी दी गई। कनखल में आज श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा स्थित है, जिसका मुख्यालय यहीं है और यहां निर्मल संस्कृत महाविद्यालय में संस्कृत पढ़ाई जाती है और संस्कृत का प्रचार प्रसार पूरे देश में किया जाता है।
निर्मल संत गुरमुखी के साथ-साथ छात्रों को संस्कृत भी सिखाते हैं और निर्मल संप्रदाय के संत संस्कृत का अध्ययन करते हैं। इस अखाड़े के श्री महंत और महंत वह बनते हैं जो वेदांताचार्य हों या संस्कृत में शास्त्री, आचार्य उत्तीर्ण हों। निर्मल संतों को गुरमुखी के साथ संस्कृत का ज्ञान होना भी अनिवार्य है। इस तरह गुरु गोविंद सिंह द्वारा बनाए गए निर्मल संत संस्कृत जगत के देवदूत और राजदूत माने जाते हैं।