राधिका नागरथ

इसीलिए तो जीवन रूपी यात्रा में तो गुरु का विशेष महत्त्व होता है, लेकिन सच्चा गुरु कौन है, उसी पहचान क्या होती है। इस विषष पर महामंडलेश्वर स्वामी डा सुमनानंद गिरि महाराज ने रामायण की एक चौपाई का उल्लेख किया है, जिसमें गुरु के चरण और वचन की बात आई है।

उनका कहना है कि गुरु एक तत्व है जो हमें मार्गदर्शन देता रहता है। ऐसे सतगुरु को जीवंत गुरु कहा जाता है, जो शरीर छूटने के बाद भी सूक्ष्म शरीर द्वारा सबको दिशा देते रहते हैं। वहीं रामचरित मानस में गोस्वामी जी ने गुरु के बारे में विस्तार से बताया है। उन्होंने अपनी चौपाई में कहा है कि-

बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।

अर्थात तुलसीदास जी कहते हैं, मैं उन गुरु महाराज के चरण कमल की वंदना करता हूं, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं।गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि जिस व्यक्ति का आचरण उसके शब्दों से मेल खाता हो, जिसकी कथनी और करनी एक हो वह गुरु है। क्या गुरु और शिष्य का संबंध किसी भी रिश्ते में हो सकता है। क्या अलग-अलग रिश्ते जैसे पुत्र मां का गुरु हो सकता है, क्या मित्र गुरु हो सकता है।

धर्मशास्त्रों की मानें तो कृष्ण और अर्जुन दोनों मित्र भी हैं और रिश्ते में जीजा-साले भी हैं, हमेशा साथ रहे और एक संबंध हो गया। वे मित्र हो गए, लेकिन कुरुक्षेत्र के मैदान में जब अर्जुन ने यह कहा कि मैं शिष्य भाव से पूछ रहा हूं, कृष्ण तभी गुरु भाव से बोले और उनके श्रीमुख से गीता रूपी ज्ञान की अमृत वर्षा हुई। अर्जुन जब गुरु तत्व में स्थिरचित हो गए तो श्रीकृष्ण ने उनकी हर पल रक्षा की।

वहीं धर्मशास्त्रों की माने तो व्यक्ति के चरण पूजनीय नहीं है, केवल व्यक्ति का आचरण ही पूज्य होता है। कभी -कभी हमें किसी व्यक्ति अथवा साधु-संत अथवा फकीर के चरण स्पर्श करके दिव्यता का भाव आता है। वहीं इसके विपरीत हजारों रुपए के जूते पहनने वाले व्यक्ति के चरण जो एकदम साफ और स्वच्छ हों, फिर भी हम उनको नहीं छूते हैं।

उपनिषद का सूत्र है श्रीयां पादुका:

इसमें व्यक्ति की प्रतिष्ठा, कीर्ति वैभव, लक्ष्मी यह सब पादुका की विभूति हैं ,सब निहित होती है। गुरु पादुका में जब कोई महापुरुष विदा होता है, वह अपनी पादुका पहन कर चला जाता है। मतलब वहां की कीर्ति, प्रतिष्ठा भी उसके साथ ही चली जाती है। किंतु कहीं-कहीं पर चरण पीठ स्थापित हो जाते हैं, जहां गुरु की पादुका जागृत महसूस होती है।

मान्यता है कि उज्जैन मैं शिप्रा नदी के किनारे मोन तीर्थ में मोनी बाबा की समाधि पर उनके चरण आज भी जागृत हैं जिसके दर्शन के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं।वहीं महामंडलेश्वर स्वामी डा. सुमनानंद गिरि महाराज ने मानस की की एक और चौपाई के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा है कि शिष्य का गुरु पादुका के प्रति कितना सम्मान होता है।

प्रभु करी कृपा पावरी दीन्ही, सादर भरत सीस धरि लेनी।

भरत जी चित्रकूट से अयोध्या तक अपने प्रभु राम की पादुका सिर पर रख कर लाए। क्योंकि बहुत आग्रह करने पर भगवान राम से कृपा स्वरूप मिली थी और इसके बाद उनका मन शांत हो गया। अयोध्या में राजगद्दी पर प्रभु राम की पादुका रखी गई। अयोध्या जैसे स्थिर हो गई। उस 14 वर्ष के काल में कोई मरा नहीं, कोई पैदा नहीं हुआ।

कहते हैं कि तीनों सुख दैहिक, भौतिक, आदिदैविक राम राज्य में ही प्रजा को मिले उनके वनवास काल में नहीं, भरत राज्य में नहीं। भरत जी कौशल्या मां के पास जाकर कभी-कभी उद्विग्न होते तो चले आते नंदीग्राम में। एक दिन भरत जी ने निश्चय कर लिया कि आज शरीर छोड़ देंगे। उन्होंने सरयू नदी में प्रवेश किया और जैसे ही जलस्तर उनके सिर तक आने लगा, दो व्यक्तियों ने आकर उन को बाहर निकाल कर खड़ा किया।

उन्होंने कहा , भरत श्रेष्ठ अगर आप ऐसा करेंगे तो हम क्या उत्तर देंगे। भरत जी ने पूछा उत्तर देने वाले तुम कौन, मैं राजा घोषित किया गया हूं। राजा उत्तर देगा। मैं नहीं जीना चाहता हूं। बार-बार भरत जी के पूछने पर कि तुम कौन हो, उन दोनों व्यक्तियों ने कहा, हमें आज्ञा तो नहीं है पर छोटे भाई हो। हम आपको बता देते हैं कि हम भगवान राम की पादुकाएं हैं और हम पर अयोध्या का संचालन और राज्य की रक्षा का भार है। इस तरह अपने गुरु हमेशा मार्गदर्शन करते रहते हैं।