Gangaur Vrat Katha, Puja Vidhi, Aarti: एक बार भगवान शिव, माता पार्वती और नारद जी तीनों साथ में भ्रमण के लिए निकलें और घूमते हुए एक गांव में पहुंच गये। इस दिन चैत्र शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि थी। गांववासियों को जैसे ही इनके आने की खबर मिली तो सभी लोग भगवान के स्वागत की तैयारियां करने लगे। सबसे पहले उस गांव की गरीब महिलाएं थाल में हल्दी और अक्षत लेकर उनके स्वागत के लिए पहुंचीं। मां पार्वती ने प्रसन्न होकर उन पर सुहाग रस का आशीर्वाद बरसा दिया।
कुछ ही समय बाद धनी महिलाएं सोने चांदी की थाली में तरह-तरह के पकवान लेकर और सोलह श्रृंगार कर भगवान शिव और माता पार्वती के पास पहुंची। इन स्त्रियों को देखने के बाद भगवान शिव ने माता पार्वती से पूछा कि तुमने तो सारा सुहाग रस निर्धन महिलाओं को दे दिया। अब इन्हें क्या दोगी? मां पार्वती बोलीं कि मैंने उन स्त्रियों को ऊपरी पदार्थों से निर्मित रस दिया है। मैं अब इन महिलाओं को अपनी उंगली चीरकर रक्त छिड़क कर सुहाग का वरदान दूंगी। गणगौर व्रत कैसे करें, जानिए क्या है पूजा विधि, नियम, व्रत कथा और आरती
माता पार्वती ने महिलाओं को आशीर्वाद दिया कि वो वस्त्र, आभूषण और बाहरी मोह-माया को छोड़ कर अपने पति की सेवा तन, मन और धन से करें। उन्हें अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होगी। इस घटना के बाद पार्वती मां भगवान भोलेनाथ से आज्ञा लेकर नदी में स्नान करने चली गईं। माता ने स्नान के बाद बालू से भगवान शिव की मूर्ति बनाई और पूजा की। भोग लगाकर और प्रदक्षिणा करके दो कण का प्रसाद ग्रहण किया और माथे पर टीका लगाया। इतना सब करते-करते पार्वती जी को काफी समय लग गया। जब वे लौटकर आईं तो महादेवजी ने उनसे देरी का कारण पूछा।
पार्वतीजी ने झूठ ही कह दिया कि वहाँ मुझे मेरे मायके वाले मिल गए थे। उन्हीं से बातें करने में इतनी देर हो गई। परंतु महादेव तो महादेव ही थे। वे सब समझ रहे थे। अतः उन्होंने पूछा- ‘पार्वती! तुमने नदी के तट पर पूजन करके किस चीज का भोग लगाया था और स्वयं कौन-सा प्रसाद खाया था?’ पार्वतीजी ने पुनः झूठ बोल दिया- ‘मेरी भावज ने मुझे दूध-भात खिलाया। यह सुनकर शिवजी ने भी दूध-भात खाने की इच्छा जताई और वे नदी की तरफ चल दिए। पार्वती जी दुविधा में पड़ गईं। तब उन्होंने मौन भाव से भगवान भोले शंकर का ही ध्यान किया और प्रार्थना की – हे भगवन! यदि मैं आपकी अनन्य दासी हूँ तो आप मेरी लाज रखिए।
यह प्रार्थना करती हुई पार्वतीजी भगवान शिव के पीछे-पीछे चलती रहीं। उन्हें नदी के तट पर माया का महल दिखाई दिया। उस महल के अंदर पहुँचकर वे देखती हैं कि वहाँ पार्वती जी के भाई तथा सलहज आदि सपरिवार उपस्थित हैं। उन्होंने गौरी तथा शंकर का स्वागत किया। वे दो दिनों तक वहाँ रहे। तीसरे दिन पार्वतीजी ने शिव से चलने का आग्रह किया, पर शिवजी तैयार न हुए। वे अभी और रुकना चाहते थे। तब पार्वतीजी रूठकर अकेले ही चल दीं। ऐसी देख भगवान शिवजी को पार्वती के साथ चलना पड़ा। नारदजी भी इस समय साथ थे। चलते-चलते वे बहुत दूर निकल आए। अचानक भगवान शंकर को याद आया कि वो अपनी माला भूल आये हैं।
माता पार्वती ने कहा कि मैं माला ले आती हूँ। परंतु भगवान ने उन्हें जाने की आज्ञा न दी और इस कार्य के लिए ब्रह्मपुत्र नारदजी को भेज दिया। नारदजी को वहां जाकर कोई महल नजर नहीं आया। नारदजी वहाँ भटकने लगे और सोचने लगे कि कहीं वे किसी गलत स्थान पर तो नहीं आ गए? अचानक से नारदजी को शिवजी की माला एक पेड़ पर टँगी हुई दिखाई दी। नारदजी ने माला उतार ली और शिवजी के पास पहुँचकर वहाँ का हाल बताया।
शिवजी ने हँसकर कहा- ‘नारद! यह सब पार्वती की ही लीला है।’ तब नारदजी ने सिर झुकाकर कहा- ‘माता! आप पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। यह सब आपके पतिव्रत का ही प्रभाव है। संसार की स्त्रियाँ आपके नाम-स्मरण मात्र से ही अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं और समस्त सिद्धियों को बना तथा मिटा सकती हैं। आपकी भावना तथा चमत्कारपूर्ण शक्ति को देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मैं आशीर्वाद रूप में कहता हूँ कि जो स्त्रियाँ इसी तरह गुप्त रूप से पति का पूजन करके मंगलकामना करेंगी, उन्हें महादेवजी की कृपा से दीर्घायु वाले पति का संसर्ग मिलेगा।

