जिंदगी में हम सभी को कभी न कभी हार का सामना करना पड़ता है। कुछ लोगों के लिए हार-जीत इतनी मायने नहीं रखती कि वे इसे जिंदगी का अंतिम लक्ष्य मानकर अपने अंदर कुुठा पाल लें। ऐसे लोगों के लिए कार्यक्षेत्र में कर्म करना ज्यादा मायने रखता है। इसलिए वे परिणाम आने के बाद पुन: अपने कार्यक्षेत्र में पूरे समर्पण के साथ उतर जाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हार-जीत उन्हें प्रभावित नहीं करती है।

जो इंसान ईमानदारी से कर्म करता है उसे हार-जीत हर हाल में प्रभावित करती है। यह स्वाभाविक भी है। लेकिन यह उन्हें इस तरह प्रभावित नहीं करती कि वे हार-जीत को ही जीवन और मरण का प्रश्न बना लें। समस्या तभी उत्पन्न होती है जब हम हार-जीत को जीवन और मरण का प्रश्न बना लेते हैं। ऐसी स्थिति में हम मूल उद्देश्य से भटक जाते हैं।

मूल उद्देश्य से भटकते ही हमारा मस्तिष्क ऐसे मुद्दों पर ज्यादा चिंतन करने लगता है जो वास्तविक होते ही नहीं हैं। यह प्रक्रिया कार्यक्षेत्र में हमारे काम को भी प्रभावित करती है। इस तरह हमारा असली उद्देश्य पीछे रह जाता है और हार-जीत का भाव मुख्य हो जाता है जो अंतत: हमें इतना स्वार्थी बना देता है कि हम इंसानियत भूल जाते हैं।

कुछ लोग तो सामान्य बात या सामान्य क्रियाकलाप को भी हार-जीत का अखाड़ा बना देते हैं। उनके लिए छोटी-छोटी बातें ही हार-जीत का प्रश्न बन जाती हैं। इसका अर्थ यही है कि हम अपने रिश्तों और जीवन के प्रति ईमानदार नहीं हैं। वही इंसान सहज जीवन जी सकता है जो बड़ी से बड़ी बात को भी हार-जीत के भाव से परे रखे। हमारे कुछ रिश्ते तो इसी वजह से खराब हो जाते हैं कि हम उनमें यह भाव पैदा कर देते हैं।

इससे हमारा जीवन और भी कठिन हो जाता है। ऐसा इंसान समाज और रिश्तेदारी में भी निंदा का पात्र बनता है और उससे सब लोग बचने लगते हैं। इसलिए रिश्तों को बचाने के लिए यह जरूरी है कि हम जानबूझकर हर बात में हार-जीत का भाव पैदा न करें। हमें यह बात समझने की जरूरत है कि जिंदगी कोई जंग का मैदान नहीं है।

जब हम जिंदगी को जानबूझकर जंग का मैदान बनाने की कोशिश करते हैं तो हमारे अंदर स्वयं ही लड़ाई की भावना पैदा हो जाती है। लड़ाई के भाव में समन्वय की बात विकसित नहीं हो सकती। जब लड़ाई का भाव पैदा होता है तो हम कुछ अच्छा सोच ही नहीं सकते हैं। लड़ाई का भाव हमारे दिमाग को बुरा सोचने के लिए ही प्रेरित करता है। इसलिए अगर समन्वय के रास्ते पर चलना है तो लड़ाई के भाव को त्यागना ही होगा।

एक-दो हार या फिर लगातार एक के बाद एक मिलने वाली हार का अर्थ यह नहीं है कि जिंदगी के सारे रास्ते बंद हो गए हैं। जीत का रास्ता भी हार के माध्यम से ही निकलता है। यह हार भौतिक होती है। भले ही हम भौतिक रूप से सौ बार हार जाएं लेकिन आत्मिक रूप से नहीं हारना चाहिए। कबीर के दोहे का यह अंश हम सबने सुना है-‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’। यानी किसी भी हाल में मन नहीं हारना चाहिए। यदि मन हार मान लेता है तो सारा संघर्ष ही खत्म हो जाता है और हम हार जाते हैं। इसलिए भौतिक रूप से हारना इतना मायने नहीं रखता जितना आत्मिक रूप से हारना।

समस्या यह है कि हम भौतिक रूप से हारने को ही जिंदगी की पराजय मान लेते हैं। जो इनसान अपनी हार के बाद भी संघर्ष करने के लिए तैयार रहता है, वही असली विजेता होता है। परिश्रम और संघर्ष करने का जज्बा हार के बाद पैदा हुई निराशा को दूर करने में बहुत सहायक सिद्ध होता है। यही कारण है कि जो इनसान निराश नहीं होता है, वह हार-जीत के दायरे से ऊपर उठ जाता है। निराशा स्वयं एक तरह की हार है। निराशा से बड़ी हार और कोई नहीं है।