पावनी

मनीषी सदा ही एक बात अक्सर कहते हैं कि कुटिलता छोटी या बड़ी हो, पर वह नैतिक पतन और चारित्रिक गिरावट की तरफ ही धकेलती है। दिमाग में बार-बार कौंधने वाले मतलबी विचार स्वार्थी संस्कारों के तहत अमानवीय मूल की एक ऐसी तलछट नस्ल होते हैं, जिसमें आलस, लापरवाही के लुढ़के हुए टुकड़े शामिल हैं और पहाड़ बनती इस संकीर्ण मानसिकता से बनती हैं पूर्वाग्रहों से सराबोर हल्की, ओछी सोच वाली पीढ़ी या नस्लें।

इसीलिए सामान्य तौर पर देखा जाता है कि अगर किसी में सिर्फ मतलबीपन है और उसके संग में आत्ममुग्धता भी, तो जीवन में सजीवपन और सार्थकता आ ही नहीं सकती। महापुरुषों ने यह चेताया है कि एक होता है आत्म निरीक्षण आत्म ज्ञान, जो हम सबमें होना ही चाहिए। हमको अपनी सीमा का पता होना चाहिए और बेकार का अहंकार नहीं पालना चाहिए। बड़प्पन ऐसे ही हासिल नहीं हो जाता। एक साधारण इंसान असाधारण बनता ही तब है, जब वह आंतरिक मूल्यांकन से होकर गुजरता है और अपने आसपास हर किसी के लिए सहानुभूति और करुणा का भाव रखता है।

बात आज के बिगड़ते हुए भौतिक परिवेश, पर्यावरण प्रदूषण और हमारी जीवनशैली की हो या उदात्त जीवन मूल्यों की, हम आत्मघाती होते जा रहे हैं। अपने लाभ में ही नहीं, दूसरों को हानि पहुंचाने में भी हमारी दिलचस्पी होती है। हम दूसरों का अहित करने में कम आनंद नहीं लेते। सच्चाई यह है कि इस प्रकार का आचरण हमारा भी उतना ही अहित करता है, जितना दूसरों का। एक माली और कुम्हार आसपास रहते थे। माली सब्जियां उगाता था और कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता था। एक बार दोनों ऊंट पर सामान लादकर कस्बे की ओर जा रहे थे।

ऊंट की पीठ पर एक तरफ माली की सब्जियां लदी हुई थीं और दूसरी तरफ कुम्हार के बर्तन थे। माली ऊंट की रस्सी को पकड़े हुए आगे-आगे चल रहा था और कुम्हार ऊंट के पीछे-पीछे। तभी अचानक ऊंट ने अपनी लंबी गर्दन पीछे की ओर घुमाई और सब्जियां खाने लगा। कुम्हार ने ऊंट को सब्जियां खाते हुए देखा, पर रोका नहीं। उसने अपने मन में कहा कि ऊंट माली की सब्जियां खा रहा है तो इससे मुझे तो कोई नुकसान होगा नहीं।

वह मेरे बर्तन तो खाने से रहा! कुछ ही देर में ऊंट काफी सब्जियां खा गया, जिससे ऊंट पर लदे हुए सामान का संतुलन बिगड़ गया और सारा सामान नीचे गिर गया और कुम्हार के सारे बर्तन चकनाचूर हो गए। तब कुम्हार को भान हुआ कि अगर वह ऊंट को सब्जियां नहीं खाने देता तो उसके बर्तन भी नहीं टूटते। लेकिन अब पछताना बेकार था। आज यही स्थिति हम सबकी हो चुकी है।

हम दूसरों का या सामूहिक नुकसान रोकने के लिए बिल्कुल आगे नहीं आते और इससे हमारा जो प्रत्यक्ष या परोक्ष नुकसान होता है, उसे झेलने के लिए हम अभिशप्त रहते हैं। संपूर्ण विश्व हमारी सामूहिक संपत्ति ही है। इस पृथ्वी पर उपलब्ध सभी प्राकृतिक संसाधनों को बचाना हमारा ही दायित्व है। जो लोग इन्हें नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं, उन्हें रोकना भी हमारा दायित्व है।

एक बहुत अमीर आदमी चाहता था कि उसके दान-पुण्य का डंका बजता रहे। एक दिन वह अपने दान-पुण्य का अपने ही मुंह से बखान करने संत कबीर के पास पहुंचा। कबीर उसकी बात सुनते रहे, वह अपनी तारीफ करता रहा, बढ़ा-चढ़ा कर बताता रहा। कबीर ने पूरी बात सुनकर मुस्कुराते हुए एक वृद्ध महिला को अमीर से भी बड़ा दानी और प्रतापी कहा। सुनकर वह अमीर तिलमिला गया।

तब कबीर ने संकेत करके कहा कि देखो, वहां पड़ोस में एक वृद्धा रहती है। अमीर उस बुजुर्ग महिला की छिपकर जासूसी करने लगा। उसने देखा कि झोपड़ी के सामने पोखर में कुछ मछलियां थीं जो दोपहर की गरमी में उसका भजन सुनकर खिल जाती थीं। यह सुनने के बाद वह अमीर विनम्रता से झुक गया। बेजुबान मछलियों को वह वृद्ध महिला दोपहर की चिलचिलाती गरमी में शीतलता दे रही थी जो खुद चलने-फिरने से भी लाचार थी।

तब कबीर ने कहा कि यह उस बुजुर्ग महिला का स्वभाव था। वह इस संस्कार से पोषित थी कि अपनी क्षमतानुसार किसी की मदद कर दी जाए।आधुनिकता और भोगवाद का यह मकड़जाल है ही ऐसा कि जो इसमें अटका, वह इंसानियत से भटका। यह माहौल की मजबूरी हो गई है कि हम सब ऐसी दिनचर्या को अपना बना चुके हैं, जहां अपने सिवा किसी के बारे में कभी सोच ही नहीं पाते या फिर सोचने का मन ही नहीं करता। संभ्रांत कालोनी, आलीशान घर, मुलायम बिस्तर और नाना प्रकार की सुख-सुविधाओं के बीच रहकर भी जाने क्यों हमें चैन और आनंद की नींद नहीं। इसीलिए जो लोग बिना बैर-भाव से जीवन को जीना जानते हैं, उनके चेहरे पर नूर होता है।