सुरेंद्र सिंघल

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस्लामिक ज्ञान के केंद्र और शक्तिपीठ श्री तिरपुर मां बाला सुंदरी की धरती देवबंद में स्थित सिद्ध कुटी पर योग कलाओं में निपुण स्वामी डा. शांतनु जी महाराज पर सनातन धर्मी होने के बावजूद आर्य समाज की शिक्षाओं का जबरदस्त प्रभाव है। वे दोनों धर्मों के अनुयायियों के लिए सेतु का काम करते हैं। दोनों धर्म के लोग उनका बराबर सम्मान करते हैं।

साधु संन्यासियों की पंक्ति में ऐसे कम ही होते हैं, जिन्होंने अपना करिअर एमटेक के लिए चुना हो और राह पकड़ ली हो संन्यास की। विशेष बात यह भी है कि शांतनु जी महाराज अपने माता-पिता की इकलौती संतान हैं। वे ओड़ीशा के बलांगीर जिले के लोईसिंग्हा नगर निवासी, मध्यम वर्गीय किसान गणेश्वर दास के परिवार में जन्मे। उनके घर में साधु-संतों, आध्यात्मिक शख्सियतों का आना-जाना रहता था।

अपने पिता के साथ शांतनु महाराज भी उनकी सेवाकरते। उनके बाल मन में साधु संन्यासियों जैसा ही बनने की इच्छा प्रबल हो गई। वे कहते हैं कि जीवन में परिवर्तन के लिए सत्संगत आवश्यक है जो प्रभु कृपा से ही मिलती है। उनका बचपन और तकनीकी शिक्षा अध्ययन का समय ओड़ीशा में ही बीता। लेकिन उनकी कर्मस्थली बना उत्तर भारत का पश्चिमी उत्तर प्रदेश।

स्वामी शांतनु महाराज ने एमटेक करने के बाद राउरकेला इस्पात संयंत्र में नौकरी करने के बजाय देवभूमि उत्तराखंड का रुख किया और हरिद्वार के गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में कई वर्षों तक अध्ययन किया। उन्होंने नौ विषयों में आचार्य, दो विषयों में एमए और वेद में पीएचडी की। उन्होंने ज्योतिषाचार्य, आयुर्वेद चिकित्सा और संस्कृत विषयों में भी महारत हासिल की।

गुरुकुल कांगड़ी में अध्ययन के दौरान उन पर आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती की शिक्षाओं का गहरा प्रभाव पड़ा। आज वे दोनों ही धर्मों के प्रामाणिक विद्वान के रूप में जाने जाते हैं। शांतनु जी महाराज 74 वर्ष के हैं। साल 2002 से स्वामी देवबंद में सिद्ध कुटी पर अपना आश्रम बनाकर निरंतर अध्यात्म की साधना में लीन हैं। जीवन की एक अहम बात यह भी है कि घर छोड़ने और संन्यासी बनने के करीब 50 साल बाद उनके माता-पिता का उनसे देवबंद में इसी कुटिया पर मिलन हुआ। अपने माता-पिता के स्वास्थ्य की जानकारी लेने के लिए अब कभी-कभार वे ओड़ीशा में अपने गृहनगर चले जाते हैं।