पूनम नेगी
ऋग्वेद में उल्लखित कथानक कहता है कि मनुष्य समेत सृष्टि के सभी जड़ चेतन जीवों की रचना के उपरान्त भी सृजनकर्ता ब्रह्मा को संतुष्टि नहीं हुई। उन्होंने अनुभव किया कि मनुष्य की रचना मात्र से ही सृष्टि की गति को संचालित नहीं किया जा सकता। इसलिए नि:शब्द सृष्टि को स्वर की शक्ति से भरने के लिए जगतपालक विष्णु की अनुमति से उन्होंने ऐसी वरमुद्राधारी चतुभुर्जी दैवीय शक्ति अवतरित की जो शब्द के माधुर्य और रस से संयुक्त होने के कारण सरस्वती कहलाईं।
उन देवी सरस्वती ने जब अपनी वीणा के तारों को झंकृत किया तो समस्त सृष्टि में नाद की अनुगूंज हुई और सृष्टि के सभी जड़ चेतन को वाणी मिल मिल गई। चूंकि मां सरस्वती का अवतरण माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को हुआ था, अत: इस दिन को वसंत पंचमी के रूप में मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।
वसंत पंचमी को श्रीपंचमी भी कहते हैं। इस पर्व में माता सरस्वती की चेतना गहराई से घुली हुई है। देवी सरस्वती ज्ञान, कला तथा सुर की देवी हैं। श्रीमद् देवीभागवत, मत्स्य, ब्रह्मवैवर्त, स्कंद पुराण जैसे अनेक धर्मग्रंथों में शतरूपा, शारदा, वीणापाणि, वाग्देवी, वागीश्वरी तथा हंसवाहिनी आदि रूपों में देवी सरस्वती की महिमा का बखान किया गया है।
हमारा ऋषि चिंतन कहता है कि इस संसार को समूचा ज्ञान विज्ञान उन्हीं का कृपा प्रसाद है। उनकी महत्ता को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है। मार्कण्डेय ऋषि द्वारा रचित ह्यदुर्गा सप्तशतीह्ण के 13 अध्यायों में मां आदिशक्ति के तीन प्रमुख रूपों महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती महात्म्य विस्तार से वर्णित है। शक्ति को समर्पित इस पवित्र ग्रंथ में 13 में से आठ अध्याय मां सरस्वती को ही समर्पित हैं, जो अध्यात्म के क्षेत्र में नाद और ज्ञान की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं। पुरा साहित्य में देवी सरस्वती की महिमा का एक अत्यंत रोचक प्रसंग मिलता है।
कहते हैं ब्रह्मदेव से मनवांछित वरदान पाने की इच्छा से राक्षसराज रावण के छोटे भाई कुंभकर्ण ने दस हजार वर्षों तक घोर तपस्या की थी। जब उसकी तपस्या फलित होने का अवसर आया तो देवों ने ब्रह्मदेव से निवेदन किया कि आप इसको वर तो दे रहे हैं लेकिन यह आसुरी प्रवृत्ति का है और आपके वरदान का कभी भी दुरुपयोग कर सकता है, तब ब्रह्माजी ने देवी सरस्वती का स्मरण किया।
मां सरस्वती कुंभकर्ण की जीभ पर सवार हो गईं और उनके प्रभाव से कुंभकर्ण ने ब्रह्मा से यह वर मांगा कि-स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव ममाप्सिनम। अर्थात मैं कई वर्षों तक सोता रहूं, यही मेरी इच्छा है। इस तरह त्रेता युग में कुंभकर्ण सोता ही रहा और जब जागा तो भगवान श्रीराम उसकी मुक्ति का कारण बने। मां सरस्वती आत्मज्ञान की देवी हैं।
उनसे जुड़े प्रतीकों में अत्यंत प्रेरणादायी शिक्षण समाई हुई हैं। उनको जिस पाषाण शिला पर बैठा दर्शाया जाता है, वह इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान पाषाण की तरह अचल और निश्चल है वह हर स्थिति में मनुष्य का साथ देता है। इसी तरह देवी सरस्वती का वाद्य यंत्र वीणा यह सीख देता है कि हमारा जीवन मधुर संगीत की तरह सुमधुर रहे।
देवी सरस्वती का वाहन हंस नीर क्षीर विवेक का प्रतीक है। यदि हंस को दूध और पानी का मिश्रण दिया जाता है, तो वह उसमे से दूध पी लेता है। यह समझ यह दर्शाती है कि हमें जीवन में नकारात्मक को छोड़ कर सकारात्मकता स्वीकारनी चाहिए।
मांं सरस्वती के अर्चन-वंदन के इस पावन पर्व का अभिनन्दन समूची प्रकृति अपने समस्त शृंगार के साथ करती है। वसंत के आगमन के साथ ही समूची प्रकृति सजीव, जीवन्त एवं चैतन्यमय हो उठती है। पेड़-पौधे नई-नई कोपलों व रंगबिरंगे फूलों से आच्छादित हो जाते हैं। धरती सरसों के फूलों की वासंती चादर ओढ़ लेती है।
सुरभित आम के बौर और कोयल की कूक के बीच फूले पलाश के सुर्ख रंग वसंत के आगमन का संदेश प्रसारित कर कुदरत को उमंग व उल्लास का ऐसा आनन्दोपहार सौंपता है जिससे मानव मन पुलकित हो उठता है। मगर; वसंत का अर्थ केवल धरती का शृंगार ही नहीं है। वसंत पंचमी धरती पर जीवन के नवोदय व अभ्युदय का एक अनूठा सुअवसर है। वसंत का मूल अर्थ है व्यक्ति के संपूर्ण अस्तित्व का सृजनात्मक राग।
भारतीय वर्ष का अंत और आरंभ, दोनों वसंत में होते हैं। इस दिन को अबूझ मुहूर्त वाला माना जाता है अर्थात सब कुछ शुभ व मांगलिक। किसके यहां दु:ख नहीं है, किंतु वसंत दु:ख को ठेलकर एक गहन प्राकृतिक राग देता है। आंतरिक मनोभावों में आत्मीय उल्लास भरता है। आज वन समाप्त हो रहे हैं। हर साल लाखों कारें कचरा बनती जा रही हैं। औद्योगिक धुएं व गहराते प्रदूषण से मनुष्य का ही नहीं प्रकृति का जीवन खतरे में पड़ गया है। अब चिड़ियों के सुमधुर स्वर सुनाई पड़ना कम हो गया है।
