अक्खा तीज, अक्षय तीज या अक्षय तृतीया के नाम से जानी जाने वाली वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि, अनादि काल से ही स्वयं सिद्ध शुभ मुहर्तों में शुमार रही है। इस साल यह अक्षय तृतीया 18 अप्रैल को मनाई जा रही है। यह तिथि अपनी अद्वितीय आंतरिक क्षमता के लिये जानी और पहचानी जाती है।अक्षय यानी जो नष्ट ना हो सके। हमारे प्राचीन चिंतकों एवं मनीषियों ने बहुत पहले ही इस घड़ी की उस मूल प्रवृत्ति को पहचान लिया था जो नष्ट ना होने की अप्रतिम संभावनाओं से ओतप्रोत है। शायद इसीलिये वक़्त ने इसे “अक्षय” नाम से संबोधित किया।परंतु इस नश्वर जगत में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसका क्षय ना हो लेकिन इस तिथि को अक्षय कहने के मूल में शायद कोई और ही मर्म समाहित है। इस तृतीया को अक्षय कहने के पीछे शायद इस तिथि की संरक्षक क्षमता को इसका आधार माना गया होगा। इस तिथि में किये गये उपक्रम, क्रियाकलापों का आसानी से क्षय या ह्रास नहीं होता। पर हमारे ऋषियों नें इसे पदार्थों से ना जोड़कर विचारों से जोड़ा, मानसिक एवं आंतरिक क्षमता से बांधा, कर्मों से संलग्न किया। उन्होंने इस तिथि में उन सभी क्रियाकलापों या अभ्यास को प्रश्रय दिया जो हमारे स्थूल, लिंग, सूक्ष्म और कारण देह के जीवन में सफलता, आनंद, प्रेम और उत्साह के बीज भर दें। इन्हीं मूल्यों को जीवन में स्वर्ण का असली जनक माना गया। इसलिये इस दिन अध्ययन, साधना, उपासना, ध्यान, जप-तप, होम-हवन और दान जैसे नवीन कर्मों का प्राकट्य हुआ।

दरअसल कर्मों से सम्बंधित यही वो वास्तविक सूत्र हैं जो ह़मारे जीवन में आनंद के कारक हो सकते हैं। ऐश्वर्य की कामना के मार्ग का वरण करने से पहले हमें समझना होगा की हमारे सकारात्मक कर्म, आंतरिक क्षमता और विकसित योग्यता ही समृद्धि के असली बीज हैं। इन्हीं दरख़्तों पर सफलता, आनन्द, ऐश्वर्य और स्मृद्धि के पुष्‍प पल्लवित होतें हैं। शायद इसी वजह से हमें इस दिन सकारात्मक कर्मों को अपनाने के लिये प्रेरित किया गया, जिससे हमारे जीवन में सुख अक्षय होकर रह जाए क्योंकि शायद हमारे जीवन में हमारे सकारात्मक कर्म ही धन के असली सूत्र हैं। पर कालान्तर में अज्ञानता वश हमने आंतरिक और वैचारिक क्षमता व गुणों को भुला कर समृद्धि को स्थूल धन से, धन को स्वर्ण से और स्वर्ण को क्षणिक भौतिक उपक्रम से जोड़ दिया।

विश्वास करें इस दिन का सोने या आभूषण की खरीददारी से कोई सीधा संबंध नहीं है। यह तो हमारे लोभ की मनोवृत्ति का एक लौकिक स्वरूप है जिसका इस्तेमाल कालान्तर में व्यापारियों ने स्वयं के लाभ के लिये इस्तेमाल किया। अन्यथा हमें अक्षय स्वर्ण का स्वप्न दिखाने वाले व्यापारी भला इस दिन अपनी तिजोरी से स्वर्ण को पलायन की अनुमति क्यों देते। हां, इन विचारों के चतुर प्रयोग से असली माया तो हमारे जेब से निकल कर उनकी तिजोरी में अवश्य चली जाती है और असली समृद्धि व्यापारियों के पास पहुंच जाती है। इन अज्ञानताओं ने ही हमारी अर्थव्यवस्था की रफ्तार को भी मंद किया और हमें भी पीछे रखा। कुछ मान्यताओं और थोड़े से अस्पष्ट उल्लेखों के अलावा प्राचीन ग्रंथों में इसका कोई वर्णन नहीं है। इसका उल्लेख सिर्फ नवीन ग्रंथों में ही मिलता है।

प्राचीन ज्योतिष में स्वर्ण खरीदने के लिये विशेष ग्रह स्थितियों का वर्णन है। सोने की खरीद बिक्री के लिये मंगल, शनि, बृहस्पति और शुक्र की चाल पर नज़र रखी जाती है। शनि जब जब बुध की राशि में चरण रखते हैं, तब तब सोने में भारी तेजी होती है और वो जब मंगल की राशि में कदम रखते हैं, सोने का भाव गर्त में चला जाता है। इसका अक्षय तृतीया से कोई संबंध नहीं है। यानी यदि शनिदेव के बुध की राशि में प्रविष्ट होनें के पहले स्वर्ण का संग्रह कर लिया जाये तो सोने के मूल्यों में भारी वृद्धि का आनन्द लिया जा सकता है और यदि बुध में रहते ही या मंगल की राशि में जाने से पहले सोने को बेच दिया जाये तो नीचे के भाव में दोबारा उसे खरीद कर प्रचण्ड लाभ कमाया जा सकता है।

इस समय शनि वृहस्पति की राशि धनु में में गतिशील हैं और कुछ समय बाद वो लगभग पांच महीनों के लिए पुनः मंगल की राशि वृश्चिक में प्रविष्ट होने वाले हैं, अतः विशेष परिस्थितियों या आवश्यकता के अलावा यह काल स्वर्ण के संग्रह के लिये बहुत उत्तम नहीं है। इसलिए इस दिन पर अज्ञानतावश अपनी लक्ष्मी को दूसरों के हाथों में सौंप देना बेहतर नहीं माना जा सकता। वहीं ज्यादातर लोग सोने के नाम पर जेवर ही खरीदते हैं जो सोने में अलॉय यानि अन्य धातुओं के मिश्रण से तैयार किया जाता है। यानी हमारे द्वारा खरीदा गया सोना भी शुद्ध रूप में हमारे पास नहीं आता और हमारी लक्ष्मी भी व्यापारियों के हाथों में चली जाती हैं।हां, शनि के धनु में होने से शेयर बाज़ार में अवश्य ही लम्बी अवधि का निवेश किया जा सकता है।

अक्षय तृतीया पर सोना खरीदने से ज़्यादा बेहतर अध्ययन, असहायों की सहायता, दान के साथ जाप और उपासना है।पुराण कहते हैं कि इस दिन पूर्वजों यानि पित्रों का पिण्डदान, तर्पण तथा पिन्डदान और दान, अक्षय फल से सराबोर कर देता है। इस दिन श्वेत कमल या किसी भी सफ़ेद पुष्प से पूजन और बिल्वपत्र, बिल्व फल, कमलगट्टे, धान का लावा, खीर, काला तिल, जीरा, धनिया, शक्कर, शहद, गाय का घृत व रसीले फलों की आहुति की ग्रंथों में विशिष्ट महिमा बताई है।अक्खा तीज वसंत ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का संधिकाल भी है, इसलिए इस दिन सत्तू, ख़रबूज़ा, चावल, खीरा, ककड़ी,साग, इमली, जल के पात्र (जैसे सुराही, मटका, घड़ा, कसोरा, पुरवा यानि कुल्हड़) लकड़ी की चरण पादुका यानि खड़ाऊँ, छतरी, पंखे, जैसे सूर्य की तपिश से सुकून देने वाली वस्तुओं के दान देने की भी परंपरा है।

अक्षय तीज की गिनती युगादि तिथियों में होती है, ऐसा भविष्य पुराण कहता है। इसी दिन सतयुग और त्रेतायुग का आग़ाज़ हुआ था।ब्रह्मा के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण और परशुराम, नर-नारायण और हयग्रीव जैसे विष्णु के स्वरूपों प्राकट्य भी इसी अक्षय तृतीया को हुआ था।