गीता के यथारूप काव्यात्मक निरुपण ‘प्रज्ञा वेणु’ और राम की शक्तिपूजा से तुलना की गई ‘रुद्रावतार’ के लिए ये जाने जाते हैं। दूरदर्शन के पूर्व उपमहानिदेशक और सौ से ज्यादा किताबें लिख चुके रमाकांत शर्मा ‘उद्भ्रांत’ का व्यक्तित्व प्रभावशाली है। लेकिन दूरदर्शन में आला पद पर रह चुके यह लेखक सरकारी लालफीताशाही के आगे कितने बेबस हैं यह उनसे बात करके ही जाना जा सकता है। प्रधानमंत्री कार्यालय तक अपनी गुहार पहुंचाने के बाद भी इनकी आवाज अनसुनी है। दूरदर्शन के सेवानिवृत्त उपमहानिदेशक रमाकांत शर्मा एक कार्यक्रम को प्रसारण की मंजूरी देने के मामले में करीब चार साल से विभागीय जांच का सामना कर रहे हैं। आरोप है कि जुलाई 2009 में उद्भ्रांत ने ‘किरण’ नाम के एक कमीशंड कार्यक्रम को आला अधिकारियों के आदेशों की नाफरमानी करते हुए प्रसारित किया। उद्भ्रांत का कहना कि उन्होंने यह कार्यक्रम तत्कालीन डीजी के कहने पर ही चलाया था। इस घटनाक्रम के बाद मई 2010 में उद्भ्रांत की सेवानिवृत्ति थी। सेवानिवृत्ति के पहले की औपचारिकताओं में उद्भ्रांत की सेवा-पुस्तिका को क्लीन चिट भी दी गई।
इस मामले का सबसे हैरान करने वाला और सरकारी तंत्र पर सवालिया निशान उठाने वाला पहलू यह है कि सेवानिवृत्ति के तीन साल बाद (चार महीने पूरे होने के थोड़ा पहले) 2013 में उद्भ्रांत को सूचना व प्रसारण मंत्रालय की तरफ से आरोपपत्र मिलता है। सेवानिवृत्ति के चार साल पूरे होने के बाद उनके खिलाफ किसी तरह की जांच नहीं हो सकती थी। लेकिन चार साल पूरे होने के महज चार महीने पहले उन्हें आरोपपत्र थमा दिया गया। नियम यह भी कहता है कि आरोपपत्र दायर करने के बाद अगर गंभीर मामला है तो छह महीने में आरोपपत्र पर कार्रवाई हो जानी चाहिए। लेकिन, मार्च 2013 के बाद अप्रैल 2017 तक की स्थिति में यह आरोपपत्र प्राथमिक अवस्था में ही है। जिस कार्यक्रम के प्रसारण पर उद्भ्रांत को कठघरे में खड़ा किया गया, उसे लेकर दूरदर्शन की तत्कालीन डीजी अरुणा शर्मा ने फरवरी 2010 में एक फाइल में लिखा था कि कार्यक्रम समिति ने ‘किरण’ की लोकप्रियता को देखते हुए इसके विस्तार की मंजूरी दी। इस समिति की बैठक के मिनट पर डीजी समेत सभी सदस्यों के हस्ताक्षर भी हैं। और इसी आधार पर अरुणा शर्मा ने उद्भ्रांत और उनके साथ एक और अधिकारी को दिया गया नोटिस वापस ले लिया था। इसके साथ ही अरुणा शर्मा ने यह भी साफ कर दिया था कि कार्यक्रम की लोकप्रियता और गुणवत्ता के आधार पर डीजी को इसे विस्तार देने का पूरा अधिकार है। यानी आरोप लगने और क्लीन चिट मिलने के बाद उन्हें फिर से इस मामले में घसीटा गया।
उद्भ्रांत ने इस मामले में अपना पक्ष रखने के लिए दस्तावेज मुहैया कराने की मांग को लेकर सूचना और प्रसारण मंत्रालय को लिखा। मंत्रालय ने प्रसार भारती को निर्देश दिया कि सभी जरूरी दस्तावेज उद्भ्रांत को उपलब्ध कराए जाएं और मामले में जल्द उचित कार्रवाई की जाए। उद्भ्रांत ने प्रसार भारती से एक फाइल का ब्योरा मांगा था। इसमें डीजी दूरदर्शन ने नोटिस वापस लेते हुए फाइल प्रसार भारती के तत्कालीन सीईओ बीएस लाली को भेजी थी। लेकिन प्रसार भारती ने जो ब्योरा दिया तो उसमें यह जानकारी नहीं दी कि सीईओ ने डीजी के फैसले पर क्या रुख अपनाया। अपना पक्ष रखने के लिए उद्भ्रांत के लिए यह जानकारी बहुत अहम है।
सरकारी तंत्र से आहत और थक चुके उद्भ्रांत ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कहा है कि यह बहुत आश्चर्यजनक है कि मामले से जुड़ीं तत्कालीन डिप्टी डायरेक्टर जनरल उषा भसीन और डिप्टी डायरेक्टर प्रोग्राम बीजे खान को तो मुक्त कर दिया गया। लेकिन सूचना व प्रसारण मंत्रालय के आदेश के बाद भी प्रसार भारती मुझे मामले से जुड़े दस्तावेज नहीं मुहैया करवा रहा है। और इसकी साफ वजह यही है कि मुझ पर लगे आरोप बेबुनियाद थे, जिन्हें साबित नहीं किया जा सकता है।
उद्भ्रांत ने कहा कि पिछले साल 14 अक्तूबर को पिछली सुनवाई में जांच अधिकारी ने मुख्य विजिलेंस अफसर से कहा था कि सूचना व प्रसारण मंत्रालय के निर्देशानुसार दस्तावेज मुहैया करवाने को कहा था। आज छह महीने हो गए लेकिन पीएमओ और सीवीसी के निर्देश के बाद भी अभी तक अगली सुनवाई नहीं हुई है। वे कहते हैं कि सरकारी निर्देशों के अनुसार विभागों में सतर्कता शाखा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए स्थापित की गई थी। लेकिन यही विभाग एक ईमानदार अधिकारी को फर्जी शिकायत के आधार पर दिए मेमो को तत्कालीन डीजी द्वारा खारिज करने करने के बाद भी सेवानिवृत्ति के तीन साल बाद पेंशन कटौती वाली गंभीर सजा का आरोपपत्र देता है। वह सूचना व प्रसारण मंत्रालय के आदेश की अवहेलना करता है और पीएमओ को गलत जानकारी देता है।
