पंजाब विधानसभा चुनाव 2022 में अकाली दल की हार के साथ सिख राजनीति के सामने नई चुनौतियां पैदा हुईं हैं। अकाली दल गुरुद्वारा सुधार आंदोलन से निकली हुई पार्टी है। दिसंबर 1920 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (SGPC) के कामकाज की रक्षा के लिए अकाली दल को स्थापित किया गया था। सिख समुदाय अब तक मुख्य रूप से अकाली दल के माध्यम से अपनी राजनीति करता रहा है। पिछले 100 वर्षों में एक अकाली गुट दूसरे की जगह लेता रहा, लेकिन सिख राजनीति के अस्तित्व का ऐसा संकट कभी नहीं आया।

अकाली दल ने शुरुआती वर्षों में कई आंदोलनों में हिस्सा लिया जिसने अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियां भी बटोरी , गुरु का बाघ और जैतो का आन्दोलन इसमें प्रमुख था, जिसके बाद अकाली दल में बड़ी संख्या में सिख शामिल हुएं। लेकिन अगर वर्तमान स्तिथि को देखें तो तो ये पता चलता है कि शिरोमणि अकाली दल का पंजाब की राजनीति में खत्म हो रहा है जिसके कारण सिख राजनीति के सामने चुनौतियां भी उत्पन्न हो रही है। 2022 के चुनाव में अकाली दल को सिर्फ 18% वोट मिले जबकि पार्टी को महज 3 सीटों पर जीत हासिल हुई। 2017 में अकाली दल भले ही सत्ता से बहार हो गयी हो, लेकिन पार्टी के गठबंधन को 30 फीसदी से अधिक वोट मिला था। जबकि अकेले अकाली दल को 25 फीसदी से अधिक वोट मिला था।

अकाली दल के वोट शेयर में लगातार गिरावट से पंजाब की सिख राजनीति पर भी असर पड़ा है क्योंकि अभी तक पंजाब की सिख राजनीति अकाली दल के सहारे ही हुई। श्री अकाल तख्त के जत्थेदार हरप्रीत सिंह ने भी अकाली दल की हार पर चिंता जताई और कहा कि ये सिख कौम के लिए बड़ी चुनौती है। साथ ही उन्होंने कहा कि अकाली दल की हार से सिख कौम चिंतित है और अकाली दल के सभी ग्रुप एकजुट होकर अकाल तख्त साहिब के पास आयें।

अकाली दल के हुए कई टुकड़े

पिछले 100 वर्षों में अकाली दल के कई टुकड़े हुए लेकिन सिखों की राजनीति अकाली दल के बैनर तले ही हुई। हालांकि अकाल तख्त साहिब के जत्थेदारों ने हमेशा अकाली दल को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई, ताकि सिख समुदाय का राजनीतिक केंद्र एक ही रहे। 1960 के दशक में मास्टर तारा सिंह और संत फतेह सिंह के बीच प्रधानगी को लेकर विवाद हुआ था, जिसके बाद अकाली दल में विभाजन हुआ था। 1985 में पंजाब के मुख्यमंत्री सुरजीत बरनाला ने भी नई अकाली दल बनाई थी। 1994 में अकाल तख्त के तत्कालीन जत्थेदार मंजीत सिंह ने नए अकाली दल की घोषणा की, जिसका नाम शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) रखा गया। लेकिन प्रकाश सिंह बादल ने इसे मानने से इंकार कर दिया और नए अकाली दल की स्थापना कर डाली, जिसका नाम शिरोमणि अकाली दल (बादल) रखा गया।

वर्ष 1998 में जब प्रकाश सिंह बादल राज्य के मुख्यमंत्री थे , उस समय तत्कालीन SGPC प्रमुख गुरचरण सिंह के कुछ कदमों के कारण विवाद उत्पन्न हुआ। दिसम्बर 1998 में फतेहगढ़ साहिब में संबोधन के दौरान प्रकाश सिंह बादल ने कहा कि SGPC शिरोमणि अकाली दल का ही एक विंग है। 1999 में गुरचरण सिंह तोहड़ा ने सर्व हिन्द अकाली दल की स्थापना की। 2002 के चुनावों में सर्व हिन्द अकाली दल को सफलता हासिल नहीं हुई और अकाली दल बादल को भी चुनावों में हार का सामना करना पड़ा। फिर 2003 में गुरचरण सिंह ने सर्व हिन्द अकाली दल का विलय अकाली दल बादल में कर दिया।

पंजाब में सिख राजनीति के सामने मुख्य चुनौती

पंजाब में जब तक प्रकाश सिंह बादल राजनीति में पूर्ण रूप से सक्रिय थे तब तक सिख राजनीति के सामने कोई चुनौती नहीं थी और वो सिखों के सबसे बड़े नेता थे। लेकिन जब से उनके बेटे सुखबीर बादल ने पार्टी की कमान संभाली, तब से अकाली दल कमजोर होती चली गयी और सिख राजनीति भी कमजोर हुई। पंजाब में शहरी क्षत्रों में बीजेपी पर निर्भरता कम करने के लिए अकाली दल ने बीजेपी को कमजोर करने का प्रयास किया लेकिन ये दांव उल्टा पड़ गया और इससे अकाली दल का ही अधिक नुकसान हुआ और बीजेपी से गठबंधन भी टूटा।

सत्ता पर एकाधिकार प्राप्त करने के लिए अकाली दल ने पिछले दो दशकों में सिख राजनीतिक जीवन के अन्य दो महत्वपूर्ण संस्थान अकाल तख्त और एसजीपीसी को व्यवस्थित रूप से कमजोर किया। इससे पार्टी को सिख वोटों का नुकसान हुआ और सिख राजनीति कमजोर हुई।