उत्तराखंड में एक चौंका देने वाला मामला सामने आया है। यहां सरकारी पैसे से पीरियड्स के दौरान महिलाओं को अलग रखने के लिए झोपड़ी बनाई गई हैं। हालांकि जिलाधिकारी रणवीर सिंह चौहान ने मामले की जानकारी होते ही इसे बंद करने और जांच के निर्देश दिए हैं। दरअसल, राज्य के चंपावत जिले के घुरचुम गांव में ग्राम पंचायत की तरफ से इसके लिए फंड जारी किया गया था।

मामले का खुलासा गांव के ही रमेश चंद्र जोशी की शिकायत के बाद हुआ। सोमवार को उन्होंने इसकी शिकायत जिलाधिकारी से की। शिकायत में कहा गया कि, घुरचुम गांव में सरकारी फंड से पीरियड्स के दौरान महिलाओं को अलग रखने के लिए झोपड़ी बनाई गई है। महिलाओं के लिए यह झोपड़ी बने करीब दो साल हो गए। गांव की आबादी 450 है।

वहीं, इस मामले पर जिलाधिकारी ने कहा, ग्राम पंचायतों को आवंटित धन का उपयोग इस तरह करने की कोई व्यवस्था नहीं है। मामले की जानकारी होते ही एसडीएम को आदेश दे दिए गए हैं। इसके साथ ही जिला पंचायत राज अधिकारी से फंड जारी होने की पूरी जानकारी मांगी गई है। वहीं, इस मामले में गांव के ग्राम प्रधान मुकेश जोशी ने पीरियड्स के दौरान महिलाओं को अलग रखने के लिए झोपड़ी बनाए जाने की बात स्वीकारी। साथ ही बताया कि इसे बनाने में दो लाख की लागत आई थी। उन्होंने दावा किया कि यह जन मिलन केंद्र था। साथ ही बताया कि इसमें कभी कोई महिला नहीं रुकी।

बता दें कि, पड़ोसी देश नेपाल में करीब एक हफ्ते पहले पीरियड्स के दौरान बिना खिड़की वाली झोपड़ी में रहने के लिए मजबूर की गई महिला और उसके दो बेटों की दम घुटने से मौत हो गई थी। घटना नेपाल के बाजुरा जिले की थी। वहां 35 वर्षीय अंबा बोहोरा अपने नौ और 12 साल के बेटों के साथ घर से पीरियड्स के कारण अलग झोपड़ी में सोने चली गई। ठंड के कारण झोंपड़ी को गर्म रखने के लिए उसमें आग जल रही थी। झोंपड़ी में हवा आने जाने के लिए खिड़की भी नहीं थी। अगली सुबह तीनों के बाहर न आने पर अंबा की सास ने झोंपड़ी में जाकर देखा तो तीनों मृत मिले थे। सभी की अंदर जल रही आग के धुएं से दम घुटने को कारण मौत हो गई थी।

गौरतलब है कि, नेपाल में सदियों से छौपदी प्रथा चली आ रही है। छौपदी का मतलब अनछुआ। इस प्रथा के तहत पीरियड या डिलिवरी के दौरान लड़कियों और महिलाओं को अपवित्र माना जाता है। इस दौरान उन्हें घर से अलग रखा जाता है। इसके बाद उन पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी जाती हैं। नेपाल सुप्रीम कोर्ट ने छौपदी प्रथा को 2005 में गैरकानूनी करार दिया था। हालांकि आज भी यह प्रथा यहां चलती है।