बादल फटने के नाम से ही पहाड़ के लोग कांप उठते हैं क्योंकि इसका मतलब ही है तबाही, कुदरत का रुह कंपा देने वाला तांडव, जान-माल की कभी न पूर्ति हो सकने वाली क्षति। हिमालयी क्षेत्र के हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के लोगों के जहन में बादल फटने से होने वाली तबाही का खौफ सबसे ज्यादा रहता है। हिमाचल प्रदेश में तो मंडी, कुल्लू, किन्नौर, लाहुल में हुई बादल फटने की घटनाएं जो भयंकर तबाही की दर्दनाक दास्तान बनी हैं, उनको लोग ताजिंदगी नहीं भूल पाएंगे। मंडी और कुल्लू जिलों की पहाड़ियों पर पिछले तीन दशक से बादल फटने की घटनाएं सर्वाधिक हुई हैं। इन घटनाओं में 500 से ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं। यह भी कहा जा सकता है कि 30 साल में बादल फटने की घटनाएं ज्यादा होने लगी हैं। कुल्लू व मंडी जिले में लगभग हर साल बादल फटने की घटनाएं होती हैं।
पिछली सदी के अंतिम दशक में यानी 1990 व 2000 के बीच कुल्लू जिले के शॉट नाला जो मणीकर्ण मार्ग पर है, में बादल फटने से आई बाढ़ में शॉट गांव का नामोनिशान ही मिट गया। पुल रातों रात गायब हो गया। घर-दुकान सब बह गए। 27 लोगों की मौत हो गई। 9 जुलाई 1993 की रात को मंडी जिले की चौहार घाटी के फुंगणी जोत में बादल फटने से आई बाढ़ में एक तरफ स्वाड़ गांव के 22 लोगों की जिंदगियां खत्म हो गईं। पहाड़ी के दूसरी ओर गढ़ गांव में पांच जिंदगियां मिट्टी-पत्थरों के साथ बह गर्इं। घरों का वजूद मिट गया।
विज्ञानियों की मानें तो बादल कभी नहीं फटता और न बादल फटने जैसी कोई बात होती है और न ही ऐसी कोई मौसमी क्रिया ही है जिसे सीधे-सीधे बादल फटना कहा जाए। थोड़े से वक्त में अत्याधिक मूसलाधार बारिश किसी एक खास क्षेत्र में हो जाने को ही बादल फटना कहते हैं। कम समय की यही बारिश उस जगह पर जमीन को अंदर तक भेद देती है और कई मीटर गहराई तक एक साथ मिट्टी, पत्थर, पेड़ सब साथ ही बह जाते हैं। इसमें मकान, खेत, जंगल सब चंद ही मिनटों में गायब हो जाते हैं। किसी कवि ने अपनी रचना में इसी तरह के दृश्य का जिक्र करते हुए कहा है कि तेज मूसलाधार बारिश के बाद अचानक जमीन खिसकने लगी, पेड़ पौधे, बड़ी बड़ी चट्टानें, मकान, जमीन फसल चल रहे थे, लोग चीख रहे थे, चंद ही मिनट में सारा दृश्य बदल गया था। यही कारण है कि तबाही का प्रतीक बना बादल फटने का शब्द सुन कर ही पहाड़ के लोग सिहर उठते हैं। अक्सर बादल पहाड़ी की चोटी पर फटता है और फिर वहां से मलबे के साथ नदी-नालों से होते हुए बहने लगता है।जो भी उसकी जद में आता है वह बह जाता है। ऐसे में यह तबाही मीलों तक चलती है।
यूं आम धारणा यही है कि तीन दशकों से जो एक भय बादल फटने के नाम से पहाड़ में पैदा हुआ है यह ग्लोबल वार्मिंग का परिणाम है। जंगल कटे हैं, पहाड़ पर वाहनों का शोर, दबाव, धुएं की गर्माहट, प्रदूषण बढ़ा है। अवैज्ञानिक तरीके से विकास हो रहा है। पहाड़ों को विकास व सीमेंट कारखानों के नाम से छलनी किया जा रहा है। अंधाधुंध खनन होने लगा है। गलत तरीके से जल का दोहन हो रहा है। हवा पानी को बिगाड़ा जा रहा है। वाहन इतने हो गए हैं कि सड़कें छोटी व कम पड़ गई हैं। फोरलेन व सुरंगें निकालने की नौबत पहाड़ में आ गई है। बिजली परियोजनाओं से छलनी पहाड़ों को फिर से हरा भरा करने की योजनाएं विफल रही हैं। इसी से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ा है और मौसम का मिजाज बदला है।

