उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में आधे से ज्यादा भू-भाग से हर साल 11.2 टन प्रति हेक्टेयर मिट्टी बहकर मैदानी क्षेत्रों में जा रही है। बरसात के दिनों में मिट्टी बहने की तादाद ज्यादा होती है। इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च (आई.सी.ए.आर.) और नेशनल ब्यूरो ऑफ सॉयल सर्वे एण्ड लैंड यूज प्लानिंग के प्रमुख वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में इसका बात का खुलासा किया है। आईआईटी रूड़की के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर सतेंद्र मित्तल ने अपनी अध्ययन रिपोर्ट में पहाड़ों से लगातार मिट्टी के क्षरण के बारे में चौंकाने वाले तथ्य पेश किए हैं।
आई.सी.ए.आर. और नेशनल ब्यूरो ऑफ सॉयल सर्वे एण्ड लैंड यूज प्लानिंग के प्रमुख वैज्ञानिक एस. के. महापात्रा की अगुआई में वैज्ञानिकों के एक दल ने पहली बार उत्तराखंड में मिट्टी कटान का विस्तृत अध्ययन किया है। जीआइएस जियोग्राफिक इंफॉरमेशन सिस्टम व यूनिवर्सल सॉयल लॉस इक्वेशन का उपयोग कर महापात्रा ने एक नक्शा भी तैयार किया है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि उत्तराखंड के किन-किन भू-भागों से मिट्टी का लगातार क्षरण हो रहा है। वैज्ञानिकों के इस दल के अध्ययन के मुताबिक राज्य के50 फीसद से ज्यादा हिस्से में मिट्टी कटान हो रहा है। इससे उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में खेती की उत्पादकता की भारी हानि हो रही है। वनों की अंधाधुंध कटाई और भूमि का सही तरीके से खेती के लिए उपयोग न करना मिट्टी कटान की एक खास वजह मानी जा रही है। भूस्खलन और भूकम्प से भी मिट्टी का क्षरण होता है।
अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 2013 में उत्तराखंड में आई आपदा में मिट्टी कटान सबसे ज्यादा था। राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में कुछ सालों से बादल फटने की घटनाएं बढ़ रही हैं, जो मिट्टी कटान की घटनाओं को बढ़ावा दे रहा है। 2017 में तैयार किए गए आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में 24295 वर्ग किलोमीटर जंगल का क्षेत्र है, जो प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का 45.43 फीसद है। केंद्र सरकार द्वारा चार धामों के लिए बनाए जा रहे ऑल वेदर रोड ड्रीम प्रोजेक्ट के कारण उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में 49 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र की कमी आने की संभावना है।
उत्तराखंड में केवल 14 फीसद क्षेत्र में ही खेती की जाती है। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य का 6.71 फीसद क्षेत्र में से 15-20 टन प्रति हेक्टेयर मिट्टी हर साल बहकर मैदानी क्षेत्रों में जा रही है। यानि हर साल 40 से 80 टन हैक्टेयर मिट्टी बह जाती है। उत्तरकाशी, टिहरी, चमोली, रूद्रप्रयाग, देहरादून जिलों के पर्वतीय क्षेत्रों से 20 से 40 टन प्रति हेक्टेयर मिट्टी हर साल बह रही है। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के बागेश्वर जिले में सबसे अधिक 40 से 80 टन हेक्टेयर मिट्टी बह रही है। आइआइटी रुड़की के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के भू-वैज्ञानिक प्रोफेसर सतेन्द्र मित्तल के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की टीम ने अपने अध्ययन में पाया है कि उत्तराखंड के पहाड़ अत्यधिक कमजोर है और मध्य हिमालय का यह भाग शैशवकाल अवस्था में है।
ऐसे में उत्तराखंड में चल रहे विकास कार्यों के कारण पहाडों का जो कटाव हो रहा है, वह भी राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों से मिट्टी क्षरण का एक मुख्य कारण है। यह मानव द्वारा की जा रही एक अन्य त्रासदी है। रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड भूकम्प के मानचित्र में जोन 4 और 5 में आता है। इसके कारण यहां आए दिन भूकम्प के कारण भी मिट्टी का निरंतर कटाव होता रहा है, जिसके फलस्वरूप पहाड़ दरकते रहते हैं। वहीं पहाड़ों के समुचित विकास के लिए औद्योगिकीकरण, रेल लाइन बिछाना और सड़क निर्माण का कार्य भी जारी है। एक ताजा आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड के सम्पूर्ण क्षेत्र का लगभग 33 फीसद क्षेत्र 17.5 लाख हेक्टेयर भूमि कटाव के हिसाब से अत्यंत संवेदनशील है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि बढ़ती आबादी और कृषि योग्य भूमि में संतुलन कैसे बिठाया जाए।
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प्रोफेसरों की अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड राज्य का 60 फीसद क्षेत्र वन क्षेत्र है, जबकि कृषि योग्य भूमि केवल 0.14 फीसद ही है और सिंचाई क्षेत्रफल मात्र 0.06 फीसद ही है। पहाड़ी वन क्षेत्रों में पत्थरों की बहुलता के कारण किसान को खेती के लिए नदियों के समीप घाटी क्षेत्रों की भूमि पर निर्भर रहना पड़ता है। इनमें प्रमुख है भाभड़ क्षेत्र व तराई क्षेत्र। इनमें भी कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां अम्लीय मृदा पाई जाती है। अध्ययन रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि ऐसे में पर्वतीय क्षेत्रों में वृहद स्तर पर भू-संरक्षण ही एक मात्र विकल्प रह जाता है, जो वनीकरण करके किया जा सकता है। रिपोर्ट यह सुझाव भी देती है कि ढालू सतहों को हल्का काट कर समतल बनाना और इसे निरंतर क्रम में करके भी मिट्टी का कटाव रोका जा सकता है।

