लखनऊ महन कूचाओ मीनार नहीं, गुम्बदो बाजार नहीं। यहां की गलियों में फरिश्तों के पते मिलते हैं। कभी लखनऊ की शान में पढ़ा गया यह शेर आज नवाबों की इस नगरी को मुंह चिढ़ा रहा है। नवाबों की बनवाई बेमिसाल इमारतें खस्ताहाल हैं। चाहे वह रूमी दरवाजा हो या इमामबाड़ा, हर तरफ सरकार की बेरुखी ऐतिहासिक इमारतों को बेबसी का अहसास करा रही हैं। कहीं प्रतिबंध के बावजूद भारी वाहन अपने घर्षण से दो सौ साल से अधिक पुरानी इमारतों की नींव कमजोर कर रहे हैं, तो कहीं इंसानों की बस्ती ने पुरातत्व महत्त्व की इमारतों का कलेजा फाड़ कर उससे निकली ईटों से अपने आशियाने बना लिए।

पहले बात शाहनजफ इमामबाड़े की। हजरतगंज के बीचो बीच 1814 से 1827 के बीच गयासुद्दीन हैदर ने इसे बनवाया। चूने और सुर्खी के साथ कई प्रकार की दालों और मसालों से इस इमारत का प्लास्टर तैयार किया गया। फिर इस बेमिसाल इमारत ने आकार लिया। पहले स्वतंत्रता संग्राम की गवाह यह इमारत खंडहर में तब्दील हो रही है। सआदत अली खां के नाम पर बना यह मकबरा अपनी अनदेखी पर नजरें झुकाए खड़ा है। शाहनजफ इमामबाड़े में सआदतअली खां और उनकी बेगम खुर्शीदजादी की कब्र हैं। लेकिन अब गुम्बद से प्लास्टर गिर कर उसमें से लखैरी र्इंटें झांकती हैं।

बावजूद इसके कोई पुरसाहाल नहीं। इसी इमामबाड़े में पहले स्वतंत्रता संग्राम की यादों को खुद में समेटे कदम रसूल है। पहली क्रांति के दरम्यान यह क्रांतिकारियों का मजबूत किला होता था। नव्वाब आसिफु्ददौला ने 1783 में रोम के दरवाजे की तर्ज पर अवध की पहचान रूमी दरवाजे का निर्माण कराया। उस वक्त अवध में पड़े भीषण अकाल के दौर में इस इमामबाड़े का निर्माण कराया गया, ताकि रोजगार की समस्या न हो। इस दरवाजे के बगल में बने आसिफी इमामबाड़े की दीवार को उस दौर में दस हजार गरीब मजदूर दिन में बनाते थे और दस हजार अमीर मजदूर रात को तोड़ देते थे।

इमामबाड़े के सामने नक्कारखाना है। इस इलाके से भारी वाहनों का प्रवेश वर्जित है। ऐसा इसलिए किया गया है ताकि इमारत को भारी वाहनों के गुजरने से होने वाले कंपन से नुकसान न पहुंचे। लेकिन मानता कौन है? इन इमारतों की देख-रेख की जिम्मेदारी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण की है। देखरेख की जिम्मेदारी जिस विभाग की है, उसी ने आसिफी इमामबाड़े के हवामहल की दीवार को चुनवा कर उसमें खिड़की और दरवाजे लगवा कर अपना कार्यालय खोल लिया।

इमामबाड़े के सामने नक्कारखाने में भी दरवाजे और खिड़िकियां लगा दी गर्इं। अब वहां सरकारी साहब बैठते हैं। फिलहाल लखनऊ शहर में सौ से अधिक छोटी और बड़ी ऐतिहासिक महत्त्व की इमारतें हैं जो सरकार की उपेक्षा और बढ़ते शहरीकरण की गिरफ्त में हैं। बावजूद इसके न सरकार के पास वक्त है और न ही शासन के पास।