राजनीति बड़ी बेरहम होती है। वाममोर्चा से बेहतर भला इस बात को कौन समझ सकता है। पश्चिम बंगाल कभी वाममोर्चा का अजेय किला होता था। उसने लगभग साढ़े तीन दशक तक यहां एकछत्र राज किया था। लेकिन कभी लालकिले के नाम से मशहूर इसी बंगाल में उसे अबकी लोकसभा चुनाव में वजूद बचाने के लिए ऐड़ी-चोटी एक करनी पड़ रही है। मोर्चा ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में राज्य की 42 में से दो सीटें जीती थीं। वे सीटें भी माकपा के खाते में गई थीं। अब माकपा के सामने अपनी उन दो सीटों को बचाने की कड़ी चुनौती है।
पश्चिम बंगाल में एक दशक से वामदलों के पैरों तले की जमीन खिसकने का सिलसिला नहीं थम सका है। पंचायत से लेकर तमाम चुनावों में वह तीसरे-चौथे नंबर पर खिसकती रही है। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और पूर्व महासचिव प्रकाश कारत के बीच लगातार बढ़ती खाई ने बंगाल में वाममोर्चा को हाशिए पर पहुंचा दिया है। आज उसके पास ज्योति बसु या बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसा कोई करिश्माई नेता नहीं बचा है। ग्रामीण इलाकों में अपने मजबूत जनाधार के कारण पार्टी ने साढ़े तीन दशकों तक बंगाल पर राज किया था, लेकिन उन इलाकों में हुए पंचायत चुनावों में भी उसे जबरदस्त मुंह की खानी पड़ी। इस दौरान राज्य में भाजपा ही नंबर दो के तौर पर उभरी। माकपा के पोलित ब्यूरो सदस्य हन्नान मौला मानते हैं कि यह चुनाव वामदलों के लिए बंगाल में सबसे कठिन राजनीतिक लड़ाई है। हमने कभी इस हालत में पहुंचने की कल्पना तक नहीं की थी। माकपा के एक अन्य नेता कहते हैं कि यह वाम दलों के लिए राजनीतिक व चुनावी वजूद की लड़ाई है। माकपा की केंद्रीय समिति के नेता सुजन चक्रवर्ती मानते हैं कि अगर यहां कांग्रेस के साथ तालमेल हो गया होता तो तस्वीर कुछ अलग होती।
कुछ तथ्य: 38 सबसे ज्यादा सीटें मिली थीं वर्ष 1980 के लोकसभा चुनावों में वाममोर्चा को यहां तब उसे 50 फीसद वोट मिले थे। 1996 और 2004 के आम चुनावों में क्रमश: 33 और 34 सीटें मिलीं। लेकिन उसके बाद उसके पैरों तले की जमीन खिसकने का सिलसिला शुरू हो गया। 2009 के चुनावों में वाममोर्चा को भारी झटका लगा और पहली बार उसके सीटों की तादाद घट कर 15 रह गई। 2014 में तो उसे महज 29 फीसद वोट और दो सीटों से ही संतोष करना पड़ा।
क्यों फिसला वाममोर्चा
1-नई सामाजिक-आर्थिक संरचना के अनुरूप नीतियों में जरूरी बदलाव करने में नाकामी, आत्ममंथन का अभाव, आंतरिक मतभेदों, प्राथमिकताएं तय नहीं होना।
2- पश्चिम बंगाल में पूर्व मुख्यमंत्रियों-ज्योति बसु व बुद्धदेव भट्टाचार्य की कद-काठी के नेताओं की कमी के कारण वामदलों से आम लोगों दूर हो गए।
3-राष्ट्रीय और राज्य की राजनीति में लगातार अपनी प्रासंगिकता खोने के बावजूद नेतृत्व खुद या पार्टी की नीतियों को बदलने के लिए तैयार नहीं है।
4-पोलितब्यूरो और केंद्रीय समितियों के जरिए सामूहिक तौर पर फैसला लेने की उसकी रणनीति भी वोटरों को रास नहीं आ रही है।
5-शीर्ष नेतृत्व में बढ़ती कड़वाहट ने भी माकपा के वोट बैंक के बिखरने की प्रक्रिया तेज की है। मौजूदा हालातों को ध्यान में रखते हुए आने वाले समय में भी पार्टी की किस्मत बदलने की उम्मीद कम ही है। (राजनीतिक प्रेक्षकों की राय)
