सवालों में रहे हैं संसदीय सचिव
मदनलाल खुराना के 1996 में इस्तीफा देने के बाद मुख्यमंत्री बने साहिब सिंह ने संविधान के जानकार विधायक नंद किशोर गर्ग को एक शासकीय आदेश से संसदीय सचिव बनाया। उन्हें वेतन आदि के साथ दफ्तर भी दिया। जैसे ही उन्हें पता चला कि लाभ के पद पर होने के कारण आपकी सदस्यता चली जाएगी, उन्होंने संसदीय सचिव का पद छोड़ दिया। शीला दीक्षित के 1998 में जीतने के बाद अजय माकन को संसदीय सचिव बनाया। माकन ने जब विधानसभा अध्यक्ष चौधरी प्रेम सिंह से मुख्यमंत्री के प्रतिनिधि के नाते सवालों के जवाब देने की इजाजत मांगी तो विधानसभा अध्यक्ष ने यह कह कर इजाजत नहीं दी कि संसदीय सचिव का पद वैधानिक नहीं है। उसके बाद भी संसदीय सचिव बनाने की परंपरा जारी रही।

दिल्ली के 21 संसदीय सचिवों का विवाद अरविंद केजरीवाल की अगुआई वाली आम आदमी पार्टी (आप) के नेताओं की अज्ञानता के साथ उनकी हठधर्मिता का सबूत साबित हुआ है। अपनी अज्ञानता का ठीकरा जबरन केंद्र सरकार पर फोड़ने की कोशिश की हवा भी चुनाव आयोग से विधायकों को मिले नोटिस ने निकाल दी है। इसमें आप से ज्यादा उन 21 विधायकों का नुकसान हुआ है जिन्हें अपनी पार्टी के नेताओं की नासमझी से अपनी सदस्यता गंवानी पड़ सकती है।

15 मार्च 2015 को 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाने के बाद 19 जून को युवा वकील प्रशांत पटेल की राष्ट्रपति को याचिका देने के दूसरे ही दिन आनन-फानन में दिल्ली मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर 24 जून को बिना केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति से संसदीय सचिवों के पद को लाभ के पद से अलग करने के विधेयक को पास करवाया गया। उसे दिल्ली विधानसभा के इतिहास में पहली बार विधेयक पेश होने से छह महीने पहले से लागू करने का प्रावधान डालना ही यह साबित करने के लिए काफी था कि खुद सरकार यह मान चुकी है कि संसदीय सचिवों के पद लाभ के हैं। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का यह कहना सही है कि उन्हें वेतन नहीं दिया जाता है। लेकिन संसदीय सचिव बनाने के आदेश में कहा गया है कि उन्हें मंत्रियों की सहायता करने के लिए दफ्तर और सरकारी काम के लिए सरकारी गाड़ी दी जाएगी।

एक तो पूरे देश में ही जिन राज्यों में संसदीय सचिवों की नियुक्ति को अदालत में चुनौती दी गई है, उनमें ज्यादातर में नियुक्ति अदालत ने रद्द की है। दूसरे जिन राज्यों ने संसदीय सचिव बनाए हैं उन्होंने उसके लिए कानून में बदलाव किया और तीसरे संसदीय सचिव तो मुख्यमंत्री या मंत्री के संसदीय कार्य में मदद के लिए बनाए जाते हैं न कि उनके विभाग के कामकाज में सहयोग देने के लिए। दिल्ली की विधानसभा बनने के बाद से लंबे समय तक उसके सचिव और लोकसभा के वरिष्ठ अधिकारी रहे एसके शर्मा के मुताबिक, दिल्ली में शासन व्यवस्था का संचालन चार चीजों से चलता है – भारत का संविधान (अनुच्छेद 239 एए और अनुच्छेद 239एबी), संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र शासन अधिनियम, 1991, राष्ट्रपति द्वारा पारित कामकाज की नियमावली (ट्रांजेक्शन आॅफ बिजनेस रूल्स) और कार्य आबंटन नियम और विधानसभा के कामकाज में विधानसभा द्वारा पारित नियमावली। इन चारों में कहीं भी संसदीय सचिव का उल्लेख नहीं है।

विधान सभा ने 1994 में मंत्रियों और विधायकों के वेतन-भत्ते के विधेयक पास किए, जिसका समय-समय पर संशोधन होता रहता है। 2001 में विपक्ष के नेता और 2004 में मुख्य सचेतक को वेतन-भत्ते देने वाला विधेयक विधानसभा ने केंद्र की मंजूरी से पास किए। दिल्ली को विधानसभा देने वाले संविधान के संशोधन में ही 70 सदस्यों वाली विधानसभा में मुख्यमंत्री समेत सात सदस्यीय मंत्रिमंडल बनाए जाने का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा विधान में ही दिल्ली महिला आयोग और दिल्ली खादी और ग्रामोद्योग आयोग के अध्यक्ष के पद को भी लाभ के पद से अलग रखा गया है। बाद के दिनों में शासकीय आदेश से जिला विकास समितियों के अध्यक्ष, दिल्ली जलबोर्ड के उपाध्यक्ष आदि पदों पर विधायकों की नियुक्ति को भी लाभ के पद से अलग करने का विधान बनाया गया। लेकिन संसदीय सचिव के लिए कोई प्रयास नहीं हुआ।

केजरीवाल चाहे जो सफाई दें या जिस पर आरोप लगाएं लेकिन यह साबित हो चुका है कि उनकी नियुक्ति करते समय उन्हें दफ्तर और गाड़ी देने का फैसला किया गया था। राष्ट्रपति भवन से कोई सफाई नहीं आई है। लेकिन माना जा रहा है कि विधेयक दो कारणों से वापस हुआ है। एक तो विधेयक वैधानिक तरीके से नहीं पास कराया गया यानी उसकी पहले मंजूरी केंद्र सरकार से नहीं ली गई और दूसरे उसे छह महीने पहले से लागू कराए जाने का प्रावधान किया गया है।

एक तो वैसे ही विधानसभा बन जाने के के बावजूद दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है। इसके कारण राष्ट्रपति इसके शासक होते हैं और वे अपने प्रतिनिधि (उपराज्यपाल) के माध्यम से दिल्ली का शासन चलाते हैं। दिल्ली में विधानसभा को 66 राज्य सूची के विषयों में से 63 सौंपे गए। लेकिन पुलिस, कानून-व्यवस्था, पुलिस और राज निवास से जुड़े मामले केंद्र के ही अधीन रहे। इन्हें आरक्षित विषय कहा जाता है। इसी के कारण दिल्ली में मुख्य सचिव, गृह सचिव और भूमि सचिव की नियुक्ति केंद्र सरकार की सहमति से होता है। दिल्ली सरकार के अधीन न तो नई दिल्ली नगरपालिका परिषद है न दिल्ली छावनी और न ही तीनों निगमें। पुलिस और डीडीए तो विधान में ही केंद्र के अधीन है। 1993 के बाद की सरकारों ने प्रयास करके दिल्ली फायर सर्विस, होम गार्ड, बिजली, पानी, डीटीसी अपने अधीन किया।