हमारा आचरण हाइकोर्ट की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यह गंभीर बात कलकत्ता हाइकोर्ट के एक न्यायामूर्ति अरिंदम सिन्हा ने उच्च न्यायालय के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल से एक पत्र के जरिए कही है। उन्होंने एक स्थानांतरण याचिका के लिस्टिंग के तरीके पर आपत्ति जताई है। नारदा मामले से जुड़ी यह याचिका सीबीआइ ने लगाई थी और इसे खंडपीठ में रिट पिटीशन के रूप में सूचीबद्ध कर लिया गया।
इस स्थानान्तरण याचिका को हाइकोर्ट की एक बेंच ने सीबीआइ द्वारा भेजे गए एक ईमेल और एडीशनल सॉलिसिटर जनरल के एक उल्लेख की बिनह पर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 407 के 17 मई के दिन सुनवाई के लिए स्वीकार कर ली थी। जस्टिस सिन्हा ने कहा है कि मामलों के लिस्टिंग की प्रक्रिया हाइकोर्ट के अपेलेट रूल्स से संचालित होती है। ये नियम बताते हैं कि मामला चाहे दीवानी का हो या फौजदारी का, स्थानांतरण का प्रस्ताव एकल जज द्वारा ही सुना जाएगा। लेकिन हुआ यह कि प्रथम डिवीज़न बेंच ने मामले को रिट पिटीशन के रूप में ले लिया। सच तो यह है कि संविधान के अनुच्छेद 228 के मुताबिक रिट पिटीशन को भी एकल जज के पास जाना चाहिए।
इसलिए सीबीआइ द्वारा हाइकोर्ट को भेजे गए ईमेल को रिट पिटीशन नहीं माना जाना चाहिए था क्योंकि उसमें कानून की व्याख्या के लिए कोई ठोस सवाल उठाया ही नहीं गया था। शायद याचिका की योग्यता मॉब फैक्टर से तय हो गई। लेकिन तब भी, क्या डिवीज़न बेंच को उसे स्वीकार कर उसे रिट पिटीशन मानते हुए उसकी सुनावाई करते रहना चाहिए था?
सीबीआई ने दरअसल मामले के स्थानांतरण के लिए मॉब फैक्टर (भीड़ के हुड़दंग) को ही आधार बनाया था। उल्लेखनीय है कि नारदा मामले की सुनवाई के दौरान सीबीआइ अदालत में टीएमसी समर्थकों का हुजूम उमड़ पड़ा था जिससे सुनवाई में दिक्कत पड़ी थी।
जस्टिस सिन्हा ने 17 मई के दिन डिवीज़न द्वारा विशेष अदालत से मंजूर जमानत पर स्टे देने के तरीके पर भी सवाल उठाया है। इसी से जुड़ा दूसरा सवाल है कि क्या हाइकोर्ट फौजदारी मामले के ट्रांसफर की अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए खुद पहलकदमी करते हुए स्टे दे सकता था?
हाइकोर्ट ने इस जज ने डिवीज़न बेंच की असहमति के बाद मामले को पांच सदस्यीय खंडपीठ के पास भेजे जाने पर भी आपत्ति जताई है और कहा है कि जब डिवीज़न बेंच के जजों में किसी मामले या एक बिंदु पर असहमति होती है तो राय जानने के लिए तीसरे जज के पास भेजा जाता है।