डा. प्रभा अत्रे एक रससिद्ध गायिका ही नहीं संगीत पर गहराई से सोचने वाली गंभीर चिंतक, शास्त्रज्ञ, विदुषी, वाग्गेकार, संगीत संयोजक, लेखिका, कवियित्री और एक समर्थ गुरु हैं। उनके 80वें जन्मदिन पर स्वरमयी ने सुरसागर सोसाइटी और हैबिटाट सेंटर के सहयोग से प्रभा की रची बंदिशों पर आधारित संगीतोत्सव ‘प्रतिबिंब : सहस्र चंद्र दर्शन स्वर-प्रभा’ आयोजित किया।
समारोह का उद्घाटन करते हुए डा. कर्ण सिंह व सुरेश प्रभु ने भारतीय शास्त्रीय संगीत में डा. प्रभा अत्रे की लिखी पुस्तकों ‘एनलाइटनिंग द लिस्नरह्ण, ‘अलोंग द पाथ आॅफ म्यूजिक’, ‘स्वरांगिनी’, ‘स्वरंजिनी’ ‘स्वररंगी’, ‘स्वरमयी’, ‘सुस्वराली’ और ‘अंत: स्वर’ कविता संग्रह और उनके हिंदी-अंग्रेजी अनुवाद का विमोचन किया। इस अवसर पर लेखिका प्रभा ने कहा, ‘कानून की छात्रा होने के कारण तार्किक बुद्धि और प्रश्नाकुलता ने ही मुझे लिखने को उकसाया। बंदिशों की रचना मैंने हर विधा में की क्योंकि मुझे हर तरह का संगीत प्रिय रहा है’।
समारोह में उनकी रची शास्त्रीय बंदिशें पहले दिन और उपशास्त्रीय बंदिशें व उनकी नृत्योपयोगी रचनाएं दूसरे दिन पेश की गई। गुरु केलुचरण महापात्र की शिष्या झेलम परांजपे ने प्रभा की बंदिशें ओडिसी नृत्य के प्रमाणिक क्रम में मंगलाचरण से ले कर मोक्ष तक प्रस्तुतियों में सजा कर दर्शको को विस्मित कर दिया।
समारोह की पहली शाम पं. वेंकटेश कुमार ने अपने पूरे कौशल के साथ प्रभा की एक से एक बेहतरीन बंदिशें गाईं। डा. प्रभा अत्रे की बंदिशों की एक खास विशेषता है कि प्राय: बड़े खयाल और छोटे खयाल के लिए वे एक ही विषय-वस्तु चुनती हैं। पं. वेंकटेश कुमार ने शाम के बेहद संजीदा राग मारवा से अपने गायन की शुरुआत करते हुए विलंबित एकताल में बड़ा खयाल ‘विकल जिया मोरा तुम बिन सांवरिया’ और द्रुत एकताल में छोटा खयाल ‘कित जाऊं तजि चरण तोरे’ को पूरी भावमयता और स्पष्ट उच्चारण सहित विधिवत प्रस्तुत किया। अगली प्रस्तुति राग, ताल और भाव का सुमधुर विपर्यय थी। राग दुर्गा में ‘माता भवानी काली’ के जोशीले तानमय मुखड़े से ही उन्होंने देवी दुर्गा के दिव्य ओज की दीप्ति बिखेर दी। मिश्र खमाज में रचे भजन से उन्होंने अपना प्रभावी गायन संपन्न किया, जो इस बात का प्रमाण था कि वेंकटेश अपनी हर प्रस्तुति को कितनी गंभीरता से लेते हैं और किस जतन से पेश करते हैं।
उद्घाटन संध्या के पहले फनकार थे उस्ताद इकबाल अहमद खां, जिन्होंने शाम के बेहद पुरकशिश राग यमन से अपने गायन की शुरुआत की और अवसरानुकूल गुरु के नमन पर रची प्रभा की दो बंदिशें विलंबित एकताल और तीनताल गाईं लेकिन मुख्य राग के बाद वे आदतन अमीर खुसरो रचित छह तालों में कलबाना और तराना वगैरह गाते रहे।
मुंबई से आई धनाश्री पंडित राय ने अगली शाम प्रभा की रची उपशास्त्रीय संगीत रचनाओं की शुरुआत राग देस में ठुमरी और दादरे से किया। धनाश्री की सधी आवाज उपशास्त्रीय संगीत के अनुकूल है लेकिन पहली ठुमरी ‘मोहे तुम बिन परत न चैन’ की भूमिका स्वरूप जिस हलके फुल्के उर्दू के शेर का उन्होंने इस्तेमाल किया वह प्रभा के साहित्य की गरिमा के अनुरूप कतई न था। बहरहाल इसके बाद उन्होंने गारा में दादरा, कनकांगी में ठुमरी और मांझ खमाज दादरे के पहले तीन दोहों का प्रयोग किया और भैरवी भजन से अपना उपशास्त्रीय गायन संपन्न किया, जो पूरी तरह प्रभा की रचनाओं पर आधारित था।