पिछले साल फरवरी में देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी हुई थी। एक साल होने को आए। तो पिछली फरवरी से पहले वाले कन्हैया और आज के कन्हैया में क्या अंतर है?
जवाब : इस एक साल के दौर में जीवन में काफी बदलाव आए हैं। इन बदलावों में दो अहम हैं। पहली बात तो यह है कि कन्हैया से लोगों की अपेक्षाएं काफी बढ़ गई हैं। और उन अपेक्षाओं पर खड़ा होने का दबाव। लोग जब आपको जानने लगते हैं तो सबसे बड़ा खतरा होता है कि वह पहलू लोगों के सामने नहीं आ पाता जो आपके विचार और व्यक्तित्व की बुनियाद होते हैं। आज मुझे बहुत सारे लोग या तो देश विरोधी के रूप में जानते हैं या मोदी विरोधी के रूप में। लेकिन इस विरोध के इतर मैं किसी चीज का समर्थन भी करता हूं। देश का विरोध करना अनुचित, गैरकानूनी है। जहां तक मोदी विरोध का मसला है तो यह किसी व्यक्ति विशेष का मसला नहीं है। मेरी एक विचारधारा है जो मोदी जी की विचारधारा से अलग है। एक प्रधानमंत्री के तौर पर वे मेरे सवालों और अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं। इसके अलावा समाज क्या है और समाज में क्या होना चाहिए इस पर मेरी निजी राय है, जिसकी चर्चा नहीं होती है। बहुत कुछ अनजाना है। जो पहचान बनी है एक साल में उससे जो अपेक्षाएं पैदा हुई हैं उसमें एक अंतर्विरोध है। लोगों को लगता है कि यह बहुत बड़ा नेता बन गया है और बहुत कुछ कर सकता है। लेकिन मैं तो एक विश्वविद्यालय का विद्यार्थी हूं और एक विद्यार्थी की अपनी सीमा होती है। मैं किसी संवैधानिक पद पर नहीं हूं। बहुत से लोगों को लगता है कि शायद मैं जानबूझ कर नहीं करता हूं। हां, एक बदलाव बहुत सकारात्मक है। इसके पहले हम छात्र आंदोलनकारी के रूप में विवि परिसर में जो करते थे, बाहर उसकी कोई आवाज नहीं थी। पिछले एक साल में हम बड़ी जनता के बीच पहुंचे। हमें एक बड़ा मंच मिला।
पुलिस प्रशासन और जेल से सामना, अदालती कार्रवाई… इन सबसे डर लगा?
जवाब : फरवरी से पहले भी राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पुलिस और प्रशासन से सामना होता था। लेकिन इस बार एक अपराधी के रूप में सामना हुआ था। हमारी विचारधारा और संघर्ष ही अपराध हो गया था। कानून का रक्षक बनने वाले वकील अदालत परिसर में मेरी पिटाई कर रहे थे और संविधान की धज्जियां उड़ा रहे थे। हमारे सवाल देश के शोषितों और वंचितों के सवाल थे लेकिन हमें देशद्रोही बना दिया गया। एक तरह से यह अनुभव आंखें खोलने वाला था कि इस देश का शासन कैसे काम करता है।
क्या आपको लगता है कि प्रगतिशीलता के प्रतीक रहे जेएनयू पर अब शिकंजा कसता जा रहा है?
जवाब : इसमें दो मुख्य बाते हैं। हमला सिर्फ जेएनयू पर नहीं है। मीडिया, पत्रकार, एनजीओ से लेकर बेला भाटिया तक का मामला देख लीजिए। पत्रकारिता में बेबाकी से लिखने का प्रशिक्षण दिया जाता है लेकिन उसी बेबाक लेखन के कारण आइआइएमसी के एक छात्र को निलंबित कर दिया गया। मोबाइल दुकान में काम करनेवाला साधारण सा युवा मिन्हाज वाट्सऐप पर कुछ लिखता है तो उसकी हत्या हो जाती है। जेएनयू शोषितों के खिलाफ मुखर आवाज रहा है। चाहे इंदिरा गांधी का आपातकाल हो या आज का अघोषित आपातकाल जेएनयू इसके खिलाफ खड़ा हुआ है। और यह हमला तो अपेक्षित है। जब एक अधिनायकवादी सरकार आती है तो वह उन सारे उदार संस्थाओं पर हमले करती है जो उसके खिलाफ उठ खड़े हो सकते हैं, वह विरोध की हर आवाज बंद करना चाहती है। और ये सारे हमले देश की अखंडता, एकता और गरिमा के नाम पर किए जाते हैं। इन हमलों से घबराने के बजाए इसका प्रतिवाद जरूरी है। और हमला संगठित है तो प्रतिवाद भी संगठित होना चाहिए। रोहित की आवाज बेला भाटिया उठाए, कन्हैया की आवाज रोहित वेमुला उठाए, एचसीयू और जेएनयू साथ खड़े हों। नजीब और मिन्हाज की आवाज देश का हर प्रगतिशील विचारधारा का मंच उठाए। लोग अपने दायरों को तोड़ कर संगठित रूप में सामने आएं तभी इन हमलों का जवाब दिया जा सकेगा।
नवउदारवाद ने एक मानसिकता तैयार की है कि राजनीति ही गंदी है और आम लोगों को राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण से काटने का काम किया। और इसका सबसे बुरा असर जनवादी दलों पर ही पड़ रहा है।
जवाब : अधिनायकवादी सरकार का काम ही होता है कि वो प्रतिरोध और जन्नोमुखी विचारधारा को खत्म करे और आम जनता बंटी रहे। हिटलर जब शासन में था तो उसने सारी गड़बड़ियों के लिए यहूदियों को जिम्मेदार ठहरा दिया था। नवउदारवादी शासन भी सारी गड़बड़ियों का दोषी दलितों और मुसलमानों को ठहरा रहा है। सरकार द्वारा पोषित संस्थानों को बंद किया जा रहा है। सरकारी और निजी दोनों संस्थानों पर उसका कब्जा है। विश्वविद्यालय या शैक्षणिक परिसर जैसे संस्थान आंदोलन के केंद्र होते हैं इसलिए उसे नष्ट किया जा रहा है। बेरोजगारी और भुखमरी को छोड़ कर मंदिर-मस्जिद, झंडा, राष्टÑीय गर्व पर चर्चा की जाती है। लोग इस बात को समझें कि यह साझी लड़ाई है और इसे साझे तौर पर लड़ना होगा। कई आंदोलन में यह साझेदारी देखने को भी मिली है। वेमुला आंदोलन बने। जेएनयू के जरिए भी एक ‘आॅर्गेनिक लिंक’ बना। लेकिन हमले तेज हैं और ‘आर्गेनिक लिंक’ बनने की प्रक्रिया धीमी।
आरोप है कि अभी जेएनयू में जो आंदोलन चल रहा है मीडिया उसे जानबूझ कर खारिज कर रहा है।
जवाब : अभी पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, तो मीडिया के लिए यह गर्म मसाला है। मीडिया का अपना स्लॉट होता है। क्रिकेट विश्व कप का पांच महीने तक कवरेज हुआ और इसके खत्म होने के दो दिन बाद इंडिया अगेंस्ट करप्शन के आंदोलन को मीडिया ने हाथोंहाथ लिया। हमें मीडिया दिखाए या न दिखाए समाज के लोग उसे देखेंगे तो मीडिया को उसे दिखाना होगा। एकाधिकार की प्रवृत्ति वाले मीडिया का नई तकनीक के कारण लोकतांत्रीकरण भी हो रहा है। मुख्य मीडिया जिसे नकारता है वैकल्पिक मीडिया पर दस लाख से ज्यादा लोग उसे देख और पढ़ लेते हैं। मीडिया का दिखाना नहीं आंदोलन का होना जरूरी है।
छीन लेंगे आजादी से मनुवाद से आजादी का नारा कहां जाता है…
जवाब : मनुवाद से आजादी की पृष्ठभूमि मनुस्मृति है। यह नारा उनके खिलाफ है जो मनुस्मृति की बातों को कानून के तौर पर लागू करने की कोशिश करते हैं। मनुस्मृति जातीय संरचना को सही ठहरा कर महिलाओं को कोई भी अधिकार नहीं देने की बात कहती है। इसी संदर्भ में हम सामाजिक न्याय लागू करने की बात करते हैं। जो हजारों साल से पीछे हैं उन्हें विशेष मौका मिलना चाहिए। संविधान और उसकी प्रस्तावना के अनुसार ही समाज में सबको बराबरी के अधिकार दिए जाएं। पिछले डेढ़-दो दशकों के तमाम दावों के बावजूद वाम राजनीति में दलित-वंचित तबकों और महिलाओं के प्रतिनिधित्व के सवाल पर व्यवहार में कुछ नहीं देखा जा रहा है। क्या वाम राजनीति इस मसले पर ईमानदार है?
जवाब : यह आरोप पूरी तरह निराधार भी नहीं है। लेकिन यह आरोप उस तरह भी नहीं है जैसे लगाए जाते हैं। सवाल आपके नेतृत्व पर है आंदोलन करने पर नहीं है। आपकी पार्टी का अध्यक्ष कोई दलित क्यों नहीं है या पोलित ब्यूरो में 33 फीसद महिलाएं क्यों नहीं हैं या आदिवासी नेतृत्व क्यों नहीं है। वामपंथी दलों को इसका अहसास है और वे सचेत रूप से इसके लिए काम कर रही हैं। लेकिन गुणात्मक परिवर्तन इतना नहीं है कि दिखने लगे। नेतृत्व में अभी वंचित तबके की कमी है लेकिन आंदोलन इनके जरिए और इनके साथ ही हो रहे हैं। महाराष्टÑ में छुआछूत को लेकर वाम धड़े ने बड़ा आंदोलन किया। मैं बिहार में जिस जगह से आता हूं वहां कोई जनसंहार इसलिए नहीं हुआ, रणवीर सेना का उदय नहीं हुआ, जद (एकी) और राजद के आंदोलन की जरूरत इसलिए नहीं पड़ी क्योंकि कम्युनिस्टों की वजह से सामाजिक आंदोलन उस स्तर पर पहुंच चुका था। हां, वंचितों और अल्पसंख्यकों को लेकर कम्युनिस्ट पार्टी की जो भूमिका जमीन पर है वह पार्टी मुख्यालयों में नहीं दिखती है।
बिहार जैसे क्षेत्रों में भी अब जनांदोलन कमजोर पड़ रहे हैं।
जवाब : जनांदोलन सभी जगह कमजोर हुए हैं। लोकल्याणकारी राज्य के परिवेश में विभिन्न नीतियों के तहत एक समूह तैयार हुआ था जो अपने सवालों को लेकर मुखर था। अब औद्योगिक दौर नहीं रहा है और उत्पादन के साधन बदल चुके हैं। उत्तर औद्योगिक समय में अब बहुत कम जगह ऐसे हैं जहां 5000 मजदूर एक साथ काम करते हैं इसलिए क्लासिकल ट्रेड यूनियन मुश्किल है। यही हालत शिक्षा व्यवस्था की है। मानविकी और विज्ञान विषयों की जगह व्यावसायिक कोर्सों को तरजीह दी जा रही है। दूरस्थ शिक्षा के इस दौर ने विद्यार्थियों को विश्वविद्यालय परिसर से दूर कर दिया है। सबसिडी नहीं रहने से हॉस्टल, मेस और कैंटीन जैसे सामुदायिक स्थलों से भी विद्यार्थी दूर हो गए। असंगठित क्षेत्र ज्यादा हैं। डीयू से ज्यादा दूरस्थ शिक्षा के विद्यार्थियों की संख्या है जो एक साथ बैठ कर बातचीत नहीं कर सकते। इसके साथ ही जनवादी पार्टियां जिस वर्ग के सवालों को उठा कर सत्ता में आई थीं उन्होंने उस वर्ग के सवालों को उठाना छोड़ दिया। जो ओबीसी के सवालों को उठा कर सत्ता में आया उसने उनके ही सवालों को उठाना छोड़ दिया। इसके साथ ही नई परिस्थति के साथ भी तालेमल बिठाने में नाकाम हुए। एफडीआइ आएगा तो उसका असर सबसे ज्यादा जिस वर्ग पर पड़ेगा उस वर्ग को ही एफडीआइ के खिलाफ खड़ा करने में नाकाम रहे।
आरोप है कि जिन नारों के साथ आपका उदय हुआ आप उन नारों से आगे निकल चुके हैं और एक ब्रांड बन चुके हैं। जेएनयू में साक्षात्कार मुद्दे पर जब एक विद्यार्थी की हालत बहुत खराब हो रही थी तो आपकी गैरमौजूदगी मुद्दा बनी।
जवाब : मैं उस वक्त परिसर में नहीं था। कोई भी इंसान अपनी जगह पर खड़ा होकर किसी का मूल्यांकन कर रहा है तो उसकी अपनी वैचारिक सीमा है। कुछ भी कहने और लिखने की मेरी भी अपनी एक सीमा है। मैं किसी संवैधानिक पद पर नहीं हूं। मेरी इतनी क्षमता नहीं कि मेरे कहने भर से देश में आंदोलन खड़ा हो जाएगा। एक व्यक्ति के तौर पर मैं अपनी भूमिका निभा सकता हूं। इस लड़ाई को जन-जन तक पहुंचाने के लिए अपना काम कर रहा हूं। जहां भी मुझे मंच मिल रहा है संवाद की स्थिति बनती है वहां जाकर अपनी बात कहता हूं। मैं अब जेएनयू छात्रसंघ का अध्यक्ष नहीं हूं। मैं अब एक व्यक्ति, एक छात्र के तौर पर शामिल होता हूं। अगर किसी को लगता है कि मैं जितना कर सकता हूं उतना नहीं कर पा रहा हूं तो यह असंतोष रहेगा। असंतोष जाहिर होना दिक्कत की बात नहीं है। दिक्कत की बात तब होती है जब आप उपेक्षित किए जाते हैं। अगर कुछ लोग मेरी सीमा समझ कर खुद खड़े हो रहे हैं तो क्या दिक्कत है। लक्ष्य तो सामाजिक बदलाव ही है ना। लेकिन मुझ पर सोशल और कल्चरल कैपिटल के जो आरोप लगाए जा रहे हैं वह बहुत दुखद है। आप देखें, मुझे सबसे ज्यादा गालियां उच्च तबके के लोगों ने दी है। किसी बात को बोल कर साबित करने से बेहतर है कि आप उसे कर के साबित करें। जेएनयू पर हमला एक लोकतांत्रिक व्यवस्था पर हमला है और यहां की लड़ाई पूरे देश की लड़ाई है।
