राजधानी के लोकनायक जय प्रकाश नारायण अस्पताल से लेकर एम्स, सफदरजंग, राममनोहर लोहिया, जीटीबी, संजय गांधी,डीडीयू सहित तमाम अस्पतालों में ओटी से लेकर वार्डों तक दलालों की खुली पहुंच है। इन दलालों को कर्मचारी व मरीज इनके नामों से खूब जानते हैं। ये मरीजों को ऑपरेशन के समय जरूरी नेल यानी स्टील या टाइटेनियम की राड,प्लेट या स्क्रू वहीं पर मुहैया कराते हैं। ऑपेरशन थिएटर से लेकर वार्डों तक घुसे दवा व मेडिकल उपकरण कंपंनियों के ये दलाल सबसे ज्यादा सक्रिय हड्डी रोग विभाग में हैं। दुर्घटना का शिकार हुए तमाम मरीजों के परिजनों को भले यह नहीं पता हो कि उनके मरीज का आपरेशन किस नंबर पर होगा, लेकिन विभिन्न कंपनियों के इन दलालों के पास न केवल आपरेट होने वाले मरीजों की सूची होती है बल्कि उनको यहां तक मालूम है कि किस नंबर पर कौन से मरीज का ऑपरेशन होना है।

मरीजों के परिजनों का कहना है कि प्रतिनिधि नेल या राड का पूरा सेट लाकर देते हैं और उसका पूरा पैसा मरीज से लेते हैं। कई परिजनों ने यह भी बताया कि कंपनी वाले पैसा वापस करने में आनाकानी करते हैं। एक मरीज के परिजन बसल वर्मा ने बताया कि राड या छल्ले की गुणवत्ता से भी समझौता कर लिया जाता है। टाइटेनियम की जगह स्टील या कई बार नकली राड डाल दिया जाता है।

एम्स में हड्डी रोग विभाग में रहे डॉ सीएस यादव का कहना है एम्स में तो गड़बड़ी नहीं होती लेकिन तमाम दूसरी जगहों पर इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। उन्होंने बताया कि हड्डी के इलाज में कई तरह की छोटी बड़ी छड़ (राड ) व नट बोल्ट की जरूरत पड़ती है। कौन सा लगेगा यह ऑपरेशन के समय ही पता चलता है। कई बार मोटी रॉड से हड्डी क्रेक होने का पता चलता है तो सबसे पतली राड डालनी पड़ती है। किसी मरीज में एक दो नट से काम चल जाता है किसी में ज्यादा। ऐसे में एक रॉड नहीं पूरा सेट मंगाना पड़ता है। इतने ज्यादा नट बोल्ट का हिसाब रखना केवल नर्स से संभव नहीं होता उनको और तरह के काम होते हैं। फिर उन डिवाइसों को आॅपरेशन से पहले कीटाणु रहित करने के लिए पहले से मंगाना पड़ता है। इसलिए उनके कंपनियों के प्रतिनिधियों को ही बता दिया जाता है कि कौन से मरीज के लिए क्या डिवाइस चाहिए।

उपभोक्ता मामलों के विशेषज्ञ व जागो ग्राहक के अगुआ रहे बिजॉन मिश्र ने कहा कि स्टेंट, नेल या दलालों से संबंधित मामलों को लेकर लोग शिकायत नहीं कर पाते क्योंकि इसको लेकर कोई कानून नहीं है। लिहाजा मरीज इस बारे में शिकायत नहीं कर पाते फिर मरीज अपने डॉक्टर को नाराज भी नहीं करना चाहते। इसलिए वे शिकायत नहीं कर पाते। उन्होंने बताया कि दलालों व निजी प्रयोगशालाओं के डॉक्टरों से मिलीभगत को रोकने के लिए स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने सन 2015 में एक समिति बनाई थी।

अव्वल तो सबूत नहीं मिल पाता लेकिन जिन मामलों में समिति ने पाया भी कि दवा व जांच लैब व मेडिकल डिवाइस वाली कंपनियों ने डॉक्टरों को चेक से भी पैसा दिया है उनको भी कानून न होने से पकड़ा नहीं जा सका क्योंकि डॉक्टर उस मामले में खुद को परामर्शदाता बता देते हैं। दिल्ली मेडिकल काउंसिल के रजिस्टार डॉ गिरीश त्यागी ने बताया कि चिकित्सा परिषद में आमतौर से शिकायतें तो बहुत आती हैं लेकिन डिवाइस वगैरह को लेकर कम ही मामले देखने में आते हैं। क्यों कि अंदर क्या डाला गया यह मरीज या तीमारदार देख नहीं पाते।